मोगरे की भीनी-भीनी खुशबू से महकती शायरी की एक किताब 'डाली मोगरे की': के. पी. अनमोल
'मोगरे की डाली' के आस-पास बैठकर कभी हम अगर ज़िंदगी के अलग-अलग पहलुओं को शायरी के ज़रिये फूलों की खुशबू की तरह महसूस करें!
अरे नहीं! मैं कोई ख्व़ाब की बात नहीं कर रहा, न ही कोई ख्व़ाब सजा रहा हूँ। मैं ज़िक्र छेड़ रहा हूँ उम्दा शायर और बड़े भाई नीरज गोस्वामी के पहले ग़ज़ल संग्रह 'डाली मोगरे की' का।
शायरी मेरी तुम्हारे ज़िक्र से
मोगरे की यार डाली हो गयी
अभी कुछ दिनों पहले बड़े भाई नीरज जी ने अपनी यह बहुचर्चित पुस्तक सप्रेम भेज मुझे अपने आशीर्वाद से नवाज़ा है। मैं उनका शुक्रगुज़ार हूँ।
इस पुस्तक की लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से सहज ही लग जायेगा कि इसका पहला संस्करण 2013 में आया, 2014 में दूसरा और फिर 2016 में तीसरा संस्करण भी प्रकाशित हुआ है।
1950 में पठानकोट में जन्मे भाई नीरज गोस्वामी पेशे से इंजीनियर हैं, जो पढ़ने-लिखने के साथ-साथ रंगमंच पर अभिनय के भी शौक़ीन हैं। इंटरनेट पर ख़ासे चर्चित रचनाकार हैं। और मज़ेदार बात ये है कि आप अपने ब्लॉग पर 'किताबों की दुनिया' नाम से पुस्तक-समीक्षा लिखते हैं, जिनकी संख्या अब तक लगभग सवा सौ हो चुकी है।
उर्दू हिंदी के धड़ों से अलग नीरज भाई आम हिंदुस्तानी ज़बान में अपने जज़्बात सादा-सरल लबो-लहज़े में शायरी के साँचों में ढालते हैं और यही आम ज़बान व सादा कहन ही इन्हें एक अलग पहचान देती है। इस किताब में हमें हमारी गंगा-जमुनी तहज़ीब की महक भी रह-रहकर महकाती रहती है।
मीर, तुलसी, ज़फ़र, जोश, मीरा, कबीर
दिल ही ग़ालिब है और दिल ही रसखान है
पूरी किताब में कुल 119 ग़ज़लें शामिल हैं, इनमें से 6 ग़ज़लें होली पर और 4 ग़ज़लें मुम्बइया ज़बान में भी हैं। नीरज भाई शायरी में आम बातों को बड़े ही सलीक़े से कहते हैं कि ये सीधे दिल पर असर करती हैं। इनकी ग़ज़लों में ज़िंदगी के हर पहलू पर शेर मिलेंगे। रिश्तों की टूटन, इंसानी फ़ितरत, अहसानफ़रामोशी, विकास के बदले चुकाई क़ीमत, ग्रामीण जीवन की झलक, बचपन की यादें और ऐसे ही बहुत सारे विषय इनकी शायरी की गिरफ़्त में आये हैं।
कभी बच्चों को मिलकर खिलखिलाते नाचते देखा
लगा तब ज़िंदगी ये हमने क्या से क्या बना ली है
पाँच करता है जो दो में दो जोड़कर
आजकल सिर्फ उसका ही गुणगान है
लूटकर जीने का आया दौर है
दान के किस्से पुराने हो गये
किताब में जगह जगह पर यथार्थ जीवन से परिचित कराते हुए, सीख देते हुए शेर देखने को मिल जायेंगे। आज के भयानक वातावरण में अलग-अलग झंडों के तले एक आम इंसान की जो सहमी सी हालत है, वो इस शेर के ज़रिये बा-ख़ूबी बयान होती है-
खौफ़ का ख़ंजर जिगर में जैसे हो उतरा हुआ
आज का इंसान है कुछ इस तरह सहमा हुआ
चारों तरफ भाग-दौड़ भरी ज़िंदगी है। एक बेमक़सद की रेस है, जिसमें हम अपने इंसान होने तक के अहसास को भूलकर बस होड़ करने में लगे हैं। ऐसे में गीत, संगीत, कलाएँ आदि सब छूटती जा रही है हमसे। इस माहौल पर नीरज भाई कुछ यूँ नसीहत देते नज़र आते हैं-
दौड़ते फिरते रहें पर ये ज़रूरी है कभी
बैठकर कुछ गीत की, झंकार की बातें करें
सही तो है, संस्कृत के एक श्लोक में आचार्य भर्तुहरि द्वारा कहा गया है कि साहित्य, संगीत और कला से विहीन मनुष्य साक्षात पशु के समान है-
साहित्यसङ्गीतकलाविहीन: साक्षात्पशु: पुच्छविषाणहीन:।
अपने कई अश'आर में ये हमें ज़िंदगी को खुलकर जीने का संदेश देते नज़र आते हैं। वाकई ज़िंदगी को खुलकर जीने का जो मज़ा है, वो नज़ारों को दूर से निहारने में कहाँ!!! तभी नीरज भाई कहते हैं-
खिड़कियों से झाँकना बेकार है
बारिशों में भीग जाना सीखिये
तौल बाज़ू, कूद जाओ इस चढ़े दरिया में तुम
क्यों खड़े हो यार तट पर ताकते लाचार से
ख़ुशबुएँ लेकर हवाएँ ख़ुद-ब-ख़ुद आ जाएँगी
खोलकर तो देखो घर की बंद सारी खिड़कियाँ
नफ़रत भरे आज के माहौल में नीरज भाई के ऐसे बहुत से शेर आपको इस किताब में मिल जायेंगे, जो मोहब्बत और भाईचारे की पैरवी करते हैं। एक रचनाकार का ये फ़र्ज़ होता है कि वह आम लोगों को परदे के पीछे की बातों से अवगत कराए और दूरगामी अंदेशों से सावधान करे, यहाँ नीरज जी अपने इस फ़र्ज़ को बा-ख़ूबी अंजाम देते नज़र आते हैं-
तल्ख़ियाँ दिल में न घोला कीजिए
गाँठ लग जाए तो खोला कीजिए
अदावत से न सुलझे हैं, न सुलझेंगे कभी मसले
हटा तू राह के काँटें, मैं लाकर गुल बिछाता हूँ
तुम राख़ करो नफ़रतें जो दिल में बसी हैं
इस आग में बस्ती के घरों को न जलाओ
घर तुम्हारा भी उड़ाकर साथ में ले जायेंगी
मत अदावत की चलाओ मुल्क में तुम आंधियाँ
अपने कई अश'आर में ये सियासत की भी ख़बर लेते दिखते हैं-
सियासत मुल्क में शायद है इक कंगाल की बेटी
हर इक बूढ़ा उसे पाने को कैसे छटपटाता है
ये कैसे रहनुमा तुमने चुने हैं
किसी के हाथ के जो झुनझुने हैं
आ पलट देते हैं हम मिलके सियासत जिसमें
हुक्मरां अपनी रिआया से दगा करते हैं
ख़ुदा हर जगह, हर शय में मौजूद है, बस हम ही मूर्ख हैं जो उसे इधर-उधर ढूँढते फिरते हैं। अगर कभी गौर से हम उसे अपने अंदर ढूँढे तो वो यक़ीनन मुस्कुराते हुए हमसे ज़रूर मिलेगा। उसकी बनाई ख़ुदाई की सेवा ही उसकी बंदगी है। उसकी सबसे प्यारी सृजना इंसान से मोहब्बत ही उसकी पूजा है, लेकिन अफ़सोस कि हम यह बात समझ ही नहीं पाते। नीरज भाई अपने एक शेर में उस थाली को पूजा की थाली बताते हैं, जिसमें किसी भूखे को भोजन कराया गया हो....आह्हा! कितना उम्दा और दिल ख़ुश करने वाला ख़याल है। इसी तरह के भाव लिए कुछ और शेर भी हैं किताब में-
डाल दीं भूखे को जिसमें रोटियाँ
बस वही पूजा की थाली हो गयी
रब कभी कुछ नहीं दिया करता
रात-दिन घंटियाँ बजाने से
छाँव मिलती जहाँ दुपहरी में
वो ही काशी है वो ही मक्का है
वतन के लिए शहीद हुए वीरों की भावनाओं को भी ग़ज़लकार ने अपने इक शेर में कुछ यूँ पिरोया है-
देख हालत देश की रोकर शहीदों ने कहा
क्या यही दिन देखने को हमने दीं कुर्बानियाँ
और जवाब में हम सब शर्मिंदगी के साथ निरुत्तर हैं।
ग़ज़ल के वास्तविक अर्थ 'महबूब से गुफ़्तगू' को भी नीरज भाई ने बड़ी नफ़ासत के साथ शब्द दिये हैं। बहुत सारे ऐसे अश'आर हैं किताब में जिन्हें आप ज़हन से नहीं दिल से पढ़ना पसंद करेंगे। देखिये-
गीत तेरे जब से हम गाने लगे
हैं जुदा सबसे नज़र आने लगे
आईने में ख़ास ही कुछ बात थी
आप जिसको देख शरमाने लगे
ये हुई ना 'गुफ़्तगू' अपने 'महबूब' से....मतलब हुई ना ग़ज़ल! कुछ और अश'आर देखिये और फिर अपने दिल पर हाथ रखकर उसकी धड़कनें महसूस कीजिये-
तेरी यादें तितलियाँ बनकर हैं हरदम नाचतीं
चैन लेने ही नहीं देतीं कभी मरजानियाँ
ये तितलियों के रक्स ये महकी हुई हवा
लगता है तुम भी साथ हो अबके बहार में
हर अदा में तेरी दिलकशी है प्रिये
जानलेवा मगर सादगी है प्रिये
भोर की लालिमा चाँद की चांदनी
सामने तेरे फीकी लगी है प्रिये
एक जगह तो नीरज भाई नींद में भी कमाई कर लाते हैं। 'नींद में कमाई' क्या ख़याल लाये हैं भाई....वाह्ह्ह
ख्व़ाब देखा है रात में तेरा
नींद में भी हुई कमाई है
पूरी किताब ही इस तरह की उम्दा शायरी से सजी है। बहुत सी ऐसी बातें हैं जिन पर बात की जा सकती है, बहुत से ऐसे मसअले हैं जिन पर चर्चा की जा सकती है। एक बहुत मजबूत पक्ष इस किताब का यह है कि इसमें शामिल सभी ग़ज़लें ग़ज़ल के व्याकरण के हिसाब से भी खरी हैं। अमूमन हिंदी की ग़ज़लों में शिल्पगत काफ़ी कमजोरियाँ मिलती हैं और यही फिलवक़्त हिंदी ग़ज़ल की सबसे बड़ी चुनौती है, लेकिन नीरज भाई सरीखे कुछ ग़ज़लकार हैं, जो ग़ज़ल के हुस्न में इज़ाफ़े के लिए कमर कसे हुए हैं। इन्होने कई जगह पर तत्सम शब्दों को भी बड़े सलीक़े से ग़ज़ल में बाँधा है तो साथ ही उर्दू के मुश्किल शब्दों को भी बहुत सहूलियत के साथ इस्तेमाल किया है। इस लिहाज़ से यह पुस्तक ग़ज़ल विधा के नए चेहरों के लिए बहुत उपयोगी है।
एक अच्छी, सफ़ल और चर्चित किताब के लिए बड़े भाई नीरज गोस्वामी को बहुत बहुत मुबारकबाद।
समीक्ष्य पुस्तक- डाली मोगरे की (ग़ज़ल संग्रह)
रचनाकार- नीरज गोस्वामी
संस्करण- सजिल्द, 2016 (तीसरा)
प्रकाशन- शिवना प्रकाशन, सीहोर (म.प्र.)
मूल्य- 150 रूपये
साभार : http://kitabenboltihain.blogspot.in/2016/07/4.html
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