लेखक सिर्फ लेखक होते हैं। लेखक को सियासत नहीं भाती। उनकी अपनी दुनियाँ अलग ही होती है। उन्हें न मॉल भाता है न कॉफी हाउस !
लेकिन समय बदला और लेखक अनेक दलीय विचारधाराओं के दलदल में धँसते चले गए। यहीं से इन कथित बुद्धिजीवियों में भीषण दुर्भाग्यपूर्ण भिड़ंत प्रारम्भ हुई, जो अब थमने का नाम नहीं लेती।
उपन्यासकर रिचर्ड हूकर याद आ गए। उन्हें M.A.S.H. उपन्यास लिखने में सात वर्ष लगे। पब्लिशर के पास गए तो पहला पृष्ठ पढ़ने के बाद प्रकाशक ने कहा, " यह उपन्यास केवल रद्दी की टोकरी में फैंकने लायक है। इसे कोई छोटा-मोटा प्रकाशक भी नहीं छापेगा।" कुल इक्कीस प्रकाशकों ने उनका उपन्यास खारिज कर दिया, पर लेखक ने किसी का पोंचा नहीं पकड़ा, क्योंकि वह लेखक था, बनिया नहीं।
अंततः एक गुणी व पारखी प्रकाशक ने उपन्यास छाप दिया। कुछ ही समय में वह उपन्यास बेस्टसैलर बन गया। इस उपन्यास पर एक धारावाहिक बना, फिर एक फीचर फिल्म भी बनी, जिसने देस दुनियां में धूम मचा दी।
रिचर्ड हूकर हम आप भी बन सकते हैं। खुद पर भरोसा रखिये। सियासत से दूर रहिये। कभी खुद को ब्राह्मण, कभी दलित, कभी बनिया मत बनने दीजिये, सिर्फ लेखक ही रहिये। रिचर्ड को अधिक जानना है तो खोजने की तकलीफ तो करनी ही पड़ेगी। फोटो देखिये और खोज लीजिये।
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