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06 April 2021

'दरख़्त की छांव में' अरूज़ और काब्य का अनूठा संगम --- जगदीश बाली

 
हाल ही में सतीश कुमार (शर्मा) का एक काब्य संग्रह शाया हुआ है। पुस्तक को पढ़ने के बाद जो लगा उसे यहां उंडेल रहा हूं। 
पुस्तक तीन भागों में है। इसमें हिंदी-उर्दू का अनोखा संगम देखने को मिलता है।
पुस्तक का भाग 1 हिंदी कविताओं से सुसज्जित है। आरंभ में कवि 'माँ हिंदी' के माध्यम से हिंदी भाषा का सम्मान करते हुए इसे विश्व धरोहर कहता है। 'बलि-एक अभिशाप' एक बेहतरीन कविता है जो बलि प्रथा पर एक जबरदस्त प्रहार है। इस कविता की पंक्तियाँ 'इक माँ का सब कुछ लुट गया, एक माँ को सब कुछ मिलने के बाद' अंदर तक झकझोर देती है। एक अहम सामाजिक सरोकार लिए हुए इसे भाग-1 की सबसे बेहतरीन कविता कहा जा सकता है। कविता 'महाभारत' में कवि मनुष्य को जीवन के कुरुक्षेत्र में बोझिल, क्षुब्ध, विक्षिप्त व कशाकशी से ग्रस्त पाता है। बुद्धिमान व ज्ञानशीनल भी अपने आप को अभिमन्यु की तरह दुष्ट ताकतों से घिरा है। इसमें कवि कह्ता है: 'हलाहल घुलता रक्त में, रक्त रंजित प्रज्ञा जैसे अभिमन्यु की तरह घिरी कौरवैंद्रियों से'...। 'औरतें अनशन पर हैं' एक और बेहतरीन व मार्मिक कविता है जो नारी जीवन की ब्यथा को व्यक्त करती है। कवि कहता है: 'उनके भीतर कौंधते आवाज करते शब्द नहीं ले पाते कविता का रूप...मेरे विचार से ये औरतें आज भी अनशन पर हैं।' कविता 'दहशत' बढ़ते गुनाहों के बीच आम जन में पनपते भय को दर्शाती है। कवि कहता है: 'गुनाहों के शहर में नहीं सोते लोग... सरेआम दफ़्न होती हैं लाशें।' इसी तर्ज़ पर 'सियासत' में कवि सियासत पर आक्षेप करते हुए कहता है; 'अब तो गुनाह की परिभाषा एक ही शब्द में दी जा सकती है और वो है सियासत।' समाज में फ़ैले गुनाहों से निजात पाने के लिए अब शायद एक नहीं, बल्कि कई ईश्वरीय अवतारों की आवश्कता है। 'अब कवि कवि नहीं' बेहतरीन अंदाज़ में लेखकों की बिकी हुई व चापलूसी करती कलम पर तीखा प्रहार करती है: 'मगर अब तेरे विचारों का संदूक पड़ा है हुक्कमरानों के तलवों के नीचे...।'  'दादी का चश्मा' में कवि दादी को याद करते हुए जीवन के सवालों को उनके तज़ुर्बे से हल करने की कोशिश करता है। 'माँ का पीहर' में जहां माँ अपने पिहर को रोज़ निहारती है, वहीं यह कविता बदलते वक्त के साथ हो रहे परिवर्तन को प्रतिपादित करती है। अब माँ के पीहर में वह नाशपाती का पेड़ व खलियान नहीं है। 'कविता का जन्म' इस बात को इंगित करती है कि किसी वस्तु का मरना नव सृजन का द्योतक है। वह कहता है कि कवि की मृत्यु के बाद कोई नई कविता जन्म लेती है। 'कविता के जन्म' के माध्यम से कवि कहता है कि जब वह खुद को पहचानने लगा तो उसके ह्रदय में कविता ने जन्म लिया। 'यात्रा' में कवि मनुष्य की भौतिक व आध्यात्मिक यात्रा की बात करता है। "कर्मभूमि' मनुष्य के प्रयास व मेहनत की महता को दर्शाती है। कवि, कविता 'लाचारी' के माध्यम से कहना चाहता है कि एक गरीब आदमी के लिए सपने देखना भी मुहाल हो जाता है। कविता 'जीवन' जहां मानुष जीवन की क्षणभंगुरता को दर्शाती है, वहीं 'मृत्यु' में कवि कहता है कि केवल वास्तविक रूप से मर जाना ही मृत्यु नहीं, बल्कि आदमी तब भी मर जाता है जब वह उचित आचरण नहीं करता और किसी प्राणि के शोषण पर भी चुप रहता है। 'मौन व्यथा' में कवि कहता है कि जो व्यक्ति हर परिस्थिति में खामोश ही रहता है, वह गूंगे के समान ही है। कविता 'दरख्त की छांव' पर पुस्तक का शीर्षक आधरित है। इस कविता के माध्यम से कवि दरख्त व ऊंचे मकान में अंतर को प्रस्तुत करता है। दरख़्त साया देता है, ऊंचा मकान नहीं। वह कहता है कि मनुष्य को आशा रूपी दरख्त को नहीं सूखने देना चाहिए। 'परिवार' जीवन में माता-पिता के स्थान व महत्व को बताती है। इसी तरह 'पिता' में कवि कहता है कि पिता अपनी संतान को जीवन में आगे बढ़ने के लिए तैयार करता है और उन्हीं के बल-बूते वो जीवन की कठिन डगर को पार कर पाती है। कविता 'चूल्हा' में सतीश जी बड़े व्यंग्यात्मक रूप से वास्तु दोष से सम्बंधित अंधविश्वास पर तंज़ कसते हैं। 'रास्ते' प्रेरणास्पद कविता है जो मुश्किल रास्तों पर चलने का आहवान करता है। 'सिक्के' में कवि अपने घर के बुज़ुर्गों से विरासत में मिले अनुभव, बातों व संस्कारों की महता के प्रति कृतज्ञता प्रकट करता है। इन कविताओं को किसी निर्धारित प्रतिरूप में नहीं लिखा गया है। इन्हें मुक्त छंद कविता कहा जा सकता है। सरल, आसान व उचित शब्दों का इस्तेमाल किया गया है। ख्याल बेहतरीन है और गद्यात्मक शैली लिए हुए इन कविताओं में रवानगी है। इन कविताओं का वाचन भी सुख की अनुभूति देता है।
भाग 2 व भाग 3 में हिंदी भाषा का कवि उर्दू का शायर जान पड़ता है। शायर खुद भी कहता है कि उसके इजहार-ए-ख्याल खालिस गज़लें नहीं हैं। परंतु शायर ने काफ़िया व रदीफ़ का इस्तेमाल करते हुए गज़ल जैसी ही चीज़ पेश की है। शायर कहता है: 
मैं अपने अंदाज़ में कहता हूं गज़ल, रदीफ़ काफ़िए में हर गज़ल कैद है। 
ये तकनिकी रूप से मुकम्मल गज़ल नहीं भी हों, लेकिन ख्याल, अल्फ़ाज़ व रवानगी ऐसी है कि पढ़ने वाला इन खामियों की ओर तवज्जो न्हीं देता। इसे देखिए: 
गर शोर भीतर है, तो सुनाई क्यों नहीं देता, 
मैं मुझमें हूं तो फ़िर दिखाई क्यूं न्हीं देता? अजीब मसअला है जो सहता है ज़ुल्म सबके, 
अपने जख़्मों की कभी सफ़ाई क्यों नहीं देता।' 
इसे भी देखिए: 
उठाते हैं वही अक्सर, जो होते हैं गिराने वाले 
नज़रों से उतर जाते हैं यहां आज़माने वाले। 
मुख्तलिफ़ है हर शख्स अब तो हर किसी से, 
घर कहां बना पाते हैं बड़ा मकां बनाने वाले'
ये देखिए:
तौहीन ए सफर है थक कर बैठ जाना
हो मंजिल के मुंतज़िर तो सफर में रहो
भाग 3 में शायर कुछ शे'र और कतात पेश करता है, जिनमें वह और सुलझा हुआ और परिपक्व जान पड़ता है। इसे देखिए:
ज़िस्म के दोनों हिस्से अजब काम करते हैं
जब भी दिल रोता है, तब आंख नहीं रोती। 
इसे भी देखें: 
इस तिलिस्मी दुनियां में दो ही तो तमाशे हैं
ज़िंदगी जीने नहीं देती, उम्मीदें मरने नहीं देती। 
इस खूबसूरत कते को भी देखिए: 
अपना आप जानने का यहां न कोई रास्ता मिला 
मैने जब भी खुद को ढूंढा मुझे कोई दूसरा मिला
मैं चाह्ता था किसी रोज तो मिले शहर में आदमी
जिस-जिसको भी देखा मुझे हर कोई नया मिला
बस ऐसे ही ख्यालों को मोतियों की तरह पिरोया है सतीश जी ने। अंत मैं शायर कहता है: 
पैरहन गुरुर का यहीं उतार कर चले 
हम ग़म ए ज़िंदगी तुझे भुला कर चले 
बुलंदियां कुछ न थीं, सब कुछ तुझी में था
अब तेरा हम तुझी को लौटा कर चले 
बयां करेंगे निशां, राह में कुलाब थे
कसक की ओढ़नी यहीं हम उतार कर चले
सफ़र मैं था, सफ़र मैं हूं, सफ़र में ही रहूंगा मैं
राह में मेरे कदम निशां छोड़ कर चले 
'दरख़्त की छांव में' अरूज़ और काब्य का अनूठा संगम है। वाह सतीश जी। बेहतरीन पुस्तक के लिए आपको आफ़रीन। अलग तरह की यह पुस्तक साहित्य प्रेमियों के लिए रूचि व जिज्ञासा का सबब बनी रहेगी।

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