* सूत्रधर ओड़िया कविता संकलन * अनुवाद पारमिता षड़ंगी * समीक्षा ईप्सिता षड़ंगी *
“सूत्रधर” पिताजी कवि डॉ. बंशीघर षड़ंगी की नवम कविता संकलन है।“सूत्रधर” के नाम करण से स्वत: भरत मुनि के नाट्यशास्त्र की याद आती है। भरत मुनि ने “नाट्य शास्त्र” के पैंतीसवें अध्याय में “सूत्रधर” का उल्लेख किया है। यह “सूत्रधर” नाटक अथवा “लोकबृत्ति” के निर्देशक है । “लोकबृत्ति” को भरत मुनि ने मनुष्य के जीवनचर्या की कलात्मक अनुकरण के रूप में दर्शाया है। “सूत्रधर” एक ऐसे ज्ञानदीप्त मनुष्य है जो मंच परिचालन के साथ साथ वाद्ययंत्र, गीत आदि में विशेष ज्ञान का अधिकारी हैं। और जब जीवनरूपी नाटक की बात आती है तो “सूत्रधर” वह है जो सबके जीवन के सूत्र को अपने हाथों में धारण करके उसे कठपुतली की तरह नचाते हैं। यहाँ पिताजी के संकलन में “सूत्रधर” अदृश्य, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, परम दयालु भगवान की ओर संकेत कर रहा है। जो अपने नाटक में स्वयं ही सब कुछ है। वो सभी नियमों से ऊर्ध्व में है। किसी भी समय वह “रंग शीर्ष”(मंच) पर आ सकते है अथवा चाहे तो “अंगशीर्ष”( नेपथ्य गृह) में रह कर अपनी मर्जी से निर्देश दे सकते हैं। पिताजी के शब्द में –
“सूत्रधर, तुम्हारे अभिधान में/ शब्दों के स्वतंत्र अर्थ होते है /उनके पास जाना या /निकटतर होना / हमारे लिए आसान नहीं है” [सूत्रधर (३)]
उनके लिए कौन सा रास्ता निर्दिष्ट नहीं है। वह व्याकरण के राह पर चलकर प्रणव तक जा सकते हैं या इसके विपरित उनको ही मालूम । सत्यवती के साथ पराशर के संबंध से, व्यास के जन्म के माध्यम से ज्ञान का मार्ग हो अथवा बिना तत्व ज्ञान की शबरी का भक्ति का मार्ग हो, या कोई भी कवि, जो सब कुछ छोड़कर, खुद को ऊर्ध्व में उठाए उनके सामने समर्पण कर दें, हजारों दिशाओं में हजारों प्रकाश पुंज भेजना ,यह सबकुछ करने में समर्थ है वह “सूत्रधर”। सभी कला, सभी कविता, सभी कथ्य, अणकथ्य ,गम्य अगम्य के ऊर्ध्व में है ,यह “सूत्रधर” [ जो सारे नाट के गोवर्धन (फ़साद की जड़ )] के उपर पाँच कविताएँ और “शेष दृश्य” (1),(2) में पिताजी इस महान नाटककार का वर्णन करते हुए लिखते हैं –
(1)हमारे नाट्यकारों के ऊर्ध्व में / और एक नाट्यकार है /उसके नाटक में अजीब घटनाएँ घटती है /आवर्त्तक, संवर्त्तक, द्रोण और पुष्कर आदि,/ चतुर्मेघ इकट्ठे बारिश करें तो भी/
पृथ्वी पर सूखा पड़ जाता है /शून्य महाशून्य में अपने आप मंदिर गढ़ जाता है /मगर उस मंदिर का /प्रवेश द्वार नहीं होता है।“ ( शेष दृश्य 1)
(2) “नाविक हो या बरगद का पेड़/ या बेचारी राजकुमारी /किसी भी बात को हम /नाटक का आखिरी दृश्य है, ऐसा बोल नहीं सकते ×××××/ सचराचर / अंतिम दृश्य जैसा /कुछ नहीं है। (शेष दृश्य 2)
सिर्फ संकलन के नामकरण में ही नहीं, पिताजी की कविता प्राच्य काव्यतत्व और प्राच्य दर्शन का मंत्र पाठ करती हैं जो उनके काव्य दर्शन की वैशिष्ट्य हैं। उनके काव्य में अनेक छोटी-छोटी घटनाओं के अवतरण ऐसे हुए हैं, जो जीवन के बृहत्तर अर्थ की अन्वेषण की महान परम्परा को उज्जीवित कराती हैं। स्थान, काल, पात्र के बावजूद उनकी कविता जीवन की जिज्ञासाओं को व्यंजना करती है।
संग्रह की कविताएँ मुख्य रूप से शून्यता में पूर्णता का अनुभव, निरवता तपस्या में , ध्यान के मार्ग से गूढ़ दर्शन को शब्दों में मूर्त्त करने का प्रयास करता है। और इतनी लाचारी के बीच काले अंधेरे में ईश्वर की उपस्थिति की उपलब्धि को साक्षात कराते हैं। यह सच है कि जीवन और जगत नश्वर है, लेकिन कव्य-भाषा की चलत्-शक्ति तथा अनेक आख्यान के आगमन में वही नश्वरता, अलग राह पर चलते हुए एक अद्भुत लोक में ले जाती है, जहाँ सभी पीड़ाओं का एक ही उपसम है, सभी वियोगों के लिए मिलन की संभावना है। इस संभावनाओं का ऐश्वर्य ही पिताजी के काव्य की अनूठी विशेषता है। जैसे :-
(1)”हमेशा कुछ कुछ बातों का समाधान में देर होता है / कभी कभी अचानक राह / दिख जाती है कि/××××× आकस्मिकता हमेशा गुप्त में रहती है…(आने का वक्त)
(2) मेरे पास आने वाला बुलवा / सीधा आ रहा है कि छद्म वेश में / एक वाक्य लिखते वक्त / बार-बार वही स्वर रोकने लगा है ××××मेरे नीरव मुहूर्त में / कोलाहल भरने के लिए” (कोलाहल )
(3) साया के जैसा अनेकों बातों के / औद्धत्य को सहना पड़ता है / कभी कभी सुबह की हवा की /दुलारना में जीवन के उपर / यकीन आ जाता है / भरोसा आ जाता है ( राहगीर)
ऐसी कई कविताएँ हैं जिनमें भाषा खूब साधारण, परिचित और आत्मीय है। लेकिन भाव की गंभीरता शब्दों के माध्यम से जीवन की सच्चाई को व्यक्त करती है। चाहे वह उपमा हो या बिम्ब, वहाँ Allusion अथवा संकेत हो या न हो, एक परिचित जीवन-दृश्य संचरित होता है। जैसे:-
(1)पहाड़ के चारों तरफ से / साँप के तरह लपेटे हुए / उपर जाता है रास्ता / ऐसा लगता है मुझे / फिर से समुद्र मंथन के / तैयारी चल रही है शायद ,[नाव (1)]
(2) “सूखा पहाड़ के उपर / चंद्र सूर्य अपने अपने वक्त पर / आराम से बैठ जाते हैं / और कभी कभी शाम को भी / लालटेन जला कर बातें करते “(पहड़)
(3)“सूर्य के अस्त होते ही / सिंदुर दानी जैसी / बादल के डिब्बे से निकल आएगा चाँद / फिर धीरे धीरे सुहागिन की मांग से/ विधवा की सफेद साड़ी में / बदल जाएगा / अब लालटेन को धीमा करना पडेगा।“
[परिधि (१)]
(4)“ओस में भीग कर हवा / जब पत्ते पर बैठ गया तो / कांप गया उसका पूरा बदन /जिंदगी है तो धूप बारिश सब / सहने के अलावा और कोई चारा नहीं,(जुहार)
कई जाने-पहचाने चित्रों में पहली तीन पंक्तियों में अनेक अनुपम दृश्य हैं । चौथी पंक्ति में जीवन जैसा दृश्य वास्तविकता को बयान करती है। जीवन , अकेलेपन और इस अकेलेपन से खुद के लिए, समाज के लिए एक महार्घ अनुभव को लेकर रचित इन कविताओं को यह संकलन धारण किया है। इन कविताओं के शब्द सारे कम चौंकाने वाले हैं मगर भाव के गहराइयों में ले जाने के लिए सदा जाग्रत है ।
पिताजी के अन्य कविता संकलन के तरह ,यह संकलन भी एक नई दिशा के तरफ संकेत कर , नया दृष्टिकोण के आलोक प्रदान करता है, जिसके जड़ ओड़िआ साहित्य की मूल परंपरा के साथ जुड़ा हुआ है। इन कविताओं में गोरख संहिता से लेकर बलराम दास के भजन , ”भाव समुद्र “जगन्नाथ दास के “भागवत”,”भजन”, शिशु अनंत दास के ”ज्ञान घर भजन”
, यशवंत दास के “भजन” , दैवज्ञ बिप्र के “टीका गोविंद चंद्र “,सालवेग के भजन , भक्त चरण दास के “मनबोध चउतिशा “, राधानाथ के “ चिलिका “ आदि अनेक कविताओं की प्रसंग और गूढ़ चेतना उल्लेख किया गया है। उनके कविताएं हमारे साहित्य की जड़ के साथ संयोजित होने के साथ साथ सांप्रतिक समय खंड को, एक अलग ढंग से प्रसारित करते हैं। साधारणतः कवि भीतर से बाहर के तरफ़ गमन करते हैं,मगर पिताजी के कविताएं बाहर से भीतर के तरफ़ गति करते हुए अंत:स्थल को आलोकित करती है। इसलिए उनके कविताएं गभीर अनुभूति को ग्रहण करती है । इन कविताओं के शरीर मूलतः प्रकृति से संगठित अथवा निर्मित, जिसमें मानवीय द्वंद्व, ऋतुओं की तरह प्रज्वलित और निर्वापित होते रहते हैं एवं समस्त आवरण को छेद कर हरे पत्ते जैसे आस्था को उपर ले आते हैं। पिताजी इन कविताओं में बार-बार जिन स्मृतियों कि जंजीर में जकड़ जातें हैं, वह है बचपन के खेलकूद से , अचानक वर्तमान को संयोजित कर के । चेतना की धारा ( Stream of consciousness ) की यह तकनीक ओड़िआ कविता क्षेत्र में एक नूतन परिक्षण है, मुझे ऐसा लगता है। ऐसे ही कुछ पंक्तियों के उदाहरण है -:
(1) “चाँद उतर रहा है सागौन के पत्ते से/ केले के पत्तों को / वहीं से बिखर रहा है / उसी वक्त सारे बगीचे में / नदी जैसी एक टुकड़ा आसमान में / वहीं चांद कश्ती बन तैर रही है / द्वैत भूमिका में ×××××× हमें भी कोई / ऐसे ही कुछ / राह दिखा देते तो / हम अवतीर्ण हो सकते / सिर्फ द्वैत नहीं / कई भूमिकाओं में” (भूमिका-1)
(2) “ वर्षा होने पर / आसमान में लकीरें खींच जाती / साफ़ दिखाई नहीं देता / पास में खड़े आदमी का चेहरा / ठीक उसी वक्त / अबोलकरा पंडित से प्रश्न करता है / चेहरा क्यों साफ़ दिखाई नहीं देता / बहुत दिनों से यही अबोलकरा / सिर्फ पंडित के पास नहीं / हमारे पास भी आ रहा है / शायद वह कोई और नहीं / हम खुद / तो फिर पंडित / पंडित भी हम ही हैं / हमेशा हम ही तो है यही / दोनों भुमिकाओं में” (भूमिका (2)
(3) “ दादाजी जाने के बाद पन-बट्टा खाली / ×××××× किसके आने के आहट पास होता जा रहा है /तब से चारों तरफ सन्नाटा / सच झूठ सचमुच आपेक्षिक” (सचझूठ)
(4) “ आकाश और पृथ्वी की / मिलने वाली जगह को / दिगंत कहते हैं / मगर दिग का क्या / कोई अंत होता है / उधर देखें तो सबकुछ / धुंधला सा दिखता है / ठीक हमारे जंजाल से भरा जीवन जैसा “(स्तुति)
इस संकलन में अनेक कविताओं में सृजन रहस्य को लेकर कवि के जिज्ञासा दिखाई देता है। रहस्य के अंधकार में प्रवेश और उसके तत्व-भेद करने की निष्ठा अनेकों कविताओं में द्रष्टव्य । जैसे -:
(1) “कभी कभी शब्दों के नदी में / बह जाता है कवि तो / कभी डूबते हुए शब्दों के समुद्र में / मगर किसी के पास तो सीढ़ी नहीं है / वोही शब्दों के कन्धों का / सहारा ले कर / कवि को तो उपर उठना पडेगा” (जन्मांतर)
(2) “काश ! हमे कोई बता देता /पहले से जानने के राह / आखिरकार कैसे कविता लिखना है / कौनसी साधना में चलते / हम पहूँच सकते अपने लक्ष्यस्थान में / सचमुच उस राह में चलना / क्या धारी तलवार पर चलने जैसा”
( कविता खाता)
(3) अक्षर को सजाकर कौन बिठाएगा / सच्चाई को बयाँ करना किसके जिम्मेदारी / वह तो भोग खा कर सो रहा है / उसका पहड़ उठाएगा कौन ?”(पहड़ )
(4) “कौन सी मुद्रा में आराधना करने से / ईश्वर संतुष्ट होते होंगे / पता लगाना पड़ेगा / कौन से शब्दों के अर्थों के ऊर्ध्व ध्वनि / और उससे ऊर्ध्व मंत्र के स्तर को / जानने के लिए / उनको आवाहन करना होगा” (प्रार्थना)
इस संकलन में पैंसठ कविताएं हैं। शुरू “ बिनराह “ से हुई है और आखिरी कविता “हाट” है ।
“शेष दृश्य (2)” में पिताजी कहा है कि, “हर बातों का शुरुआत तो है / शायद आखि़र नहीं / हमारे आँखो को जो अंतिम / दिखाई देता है / वास्तव में वह अंत नहीं / आगे और भी आगे कई सारे बातें / छुपी हुई होती है ×××× हमारे आँखो को अंतिम पड़ाव जैसा / दिखाई देते हुए भी / सचमुच वह अंत नहीं होता है / सचराचर / अंतिम दृश्य जैसा / कुछ नहीं है।“ – इसलिए शेष न होने वाला प्रक्रिया का विराम कहाँ है ?
अपनी भाव के लिए शब्द ढूंढने वाले कवि हमेशा बेबस होतें है। एक उम्रदराज कवि को भी शब्दों को, अपने भाव के साथ जुगलबंदी कराने के लिए तपस्या करनी पड़ती है । ऐसे ही अनेक भावओं को लेकर यह संकलन समृद्ध। जैसे कहा गया है -: “कभी कभी अपने शव को / लहू के नदी में बहना पड़ता है / एक शब्द के लिए एक अर्थ के लिए / असहाय अवस्था को सामना करना पड़ता है / तभी शायद कोई मिल जाए / जो लिखवा दे / आपने आप को / हो सके एक माध्यम जैसे / अपनाया जा सकता है / किसी एक कवि को” (बूढा होने के बाद)
सारे कवियों को एक माध्यम के रूप में ग्रहण कर के समय के श्यामपट्ट (ब्लैकबोर्ड) में खुद को लेखक जाहिर करने वाला लीलामय “सूत्रधर” , सभी कवियों के परीक्षा लेते रहते हैं।
“ सूत्रधर” संकलन पाठकों के द्वारा खूब आदृत हो।
No comments:
Post a Comment