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26 June 2024

पहाड़ों से जड़ों की तरह लिपटे कवि का संग्रह " देवदार रहंगे मौन" -- प्रकाश बादल

मेरे भीतर समाए कवि मोहन साहिल की कविता पर... खामखा की बात... मोहन साहिल..... जिसने मुझे खुद से दूर कर दिया....  


इन दिनों शिमला के रिज मैदान पर साहित्य का एक मेला लगा हुआ है | जहाँ पर ठियोग के एक महत्वपूर्ण कवि मोहन साहिल के दूसरे काव्य संग्रह ‘देवदार रहेंगे मौन’ का लोकार्पण हुआ, अपनी बात वहीं से शुरू करना चाहता हूँ | एक ठेठ पहाडी की पहचान लिए सादे कपड़ों में एक ढाबे पर चाय बनाने वाला कवि कितनी मीठी-मीठी कवितायेँ लिखता है यह उसकी कविताएँ पढ़कर अहसास हो जाता है| मैं मोहन साहिल की बात कर रहा हूँ| इतनी मिठास और इतनी अंतरंगता इसलिए आती है कि मोहन साहिल शिमला के ऊपरी पहाडी क्षेत्र में रहने वाले उन विरले व्यक्तियों में हैं, जो हर पल हर घड़ी पहाड़ों से लिपटा रहता है| उसका हर दिन पहाड़ों के बीचों बीच से होकर बहने वाले नदियों नालों और खड्डों से वार्तालाप करके शुरू होता है | उसका शिमला के ऊंचे टीले पर बसे ठियोग के शाली बाज़ार में चलने वाला लकी टी स्टाल और उसी टी स्टाल में बनने वाली देश की सबसे मीठी चाय.. सबसे मीठी इसीलिए है कि भेखलटी से ठियोग तक दस किलोमीटर का सफ़र करते समय, रात को अपने घर की छोटी खिड़की से झांकते समय, सुबह के पहले सूरज के उगते समय, बर्फ के गिरते और पिघलते समय पहाड़ से रोज़ मिठास बटोर  अपनी चाय में घोल देता है।|  मोहन की कविताएं अहसास कराती हैं कि पहाड़ों की ढलानदार घासनियों में चढ़ती उतरती पहाड़नों के पाँव की बिवाई में पगडंडियों की खुशबू और दोपहर को घास काटती पहाड़नों के लिए दोपहर का खाना लेकर आए पति जब उनके मेहंदी रंगे हाथों से काँटा और शरीर से कुम्बर निकालते हैं तो पहाड़नों के जीवन से मानो दुखों के कुम्बर निकाल रहे हों | पहाड़ को देखने के लिए मोहन साहिल की कविता सबसे बेहतर चश्मा है | मोहन साहिल की कविता पढ़ना ज़रूरी इसलिए है कि पहाड़ की चिंता और पहाड़ का दर्द इन्हें पढ़ कर साफ़ देखा जा सकता है | यदि पहाड़ों पर कचरा करने वाला सैलानी, पहाड़ों को बचाने वाला कोई इंजीनीयर, या फिर पहाड़ों के लिए चिंतित कोई नेता यदि मोहन साहिल की कविता पढ़ ले तो पहाड़ के बचे रहने के लिए एक मास्टर प्लान तैयार हो सकता है | मोहन साहिल एक बेहतरीन आर्किटेक्ट है जो पहाड़ पर तरक्की के भवन बनाने का विरोध नहीं करता,बल्कि  पहाड़ के दर्द से अनभिज्ञता की वकालत करता  है, जिसने पहाड़ को अपने भीतर समेट लिया है | मोहन साहिल की कविता महत्वपूर्ण क्यों हो जाती है ? उनकी कविता की ये पंक्तियाँ बयान करती हैं |

“ हम हैं जिन्होंने कविता के लिए

 नहीं चुने कठिन और अलंकारी शब्द

जीने के लिए चुने दुरूह और खाईदार रास्ते” 


मोहन साहिल का चश्मा जब तरह-तरह की कारों को पहाड़ों की घुमावदार सड़कों से होकर शहर की खुली सड़कों की ओर आते देखता है तो पूरे देश की तस्वीर सामने आने लगती है. यही एक सफल कवि का परिचय है | उनकी ‘कारें’ शीर्षक की कविता पढ़कर पूरे देश की व्यवस्था का भ्रमण किया जा सकता है |  उनकी कविता कहती है कि  कोई कार जन्म से घमंडी नहीं होती और शो रूम में भी शालीन नज़र आती हैं बल्कि कार में मंत्री के बैठते ही उसकी त्यौरियां चढ़ जाती हैं | इस कार को सड़कों पर पसरा दर्द, पैदल स्कूल जाते बच्चे, बसों की घंटों प्रतीक्षा करते ग्रामीण नज़र नहीं आते और यह कार सीधी एसकॉट के इशारे पर आगे निकल जाती है | एक अफसर की कार मंत्री की पिछलग्गू होते हुए भी ये खासियत रखती है कि हर साल मुरम्मत में ही लाखों खा जाती है| कारें कविता में डाक्टर से स्कूल मास्टर  तक की कारों को अगर आप मोहन साहिल की नज़रों से देखेंगे तो गंभीरता से लबालब  और आनद के ठहाकों से लोटपोट होकर निकलेंगे | पुलिस की कार सबको शक की निगाह से देखती नज़र आती है तो पाप की कमाई वाली कारों में एक्टर, ठेकेदार, गुंडे और बाहुबलि बैठे दिखाई देते हैं और ये कारें हमेशा नशे में धुत्त दिखाई देती हैं | मोहन साहिल की कविता बर्फ में सेल्फी खींचते पर्यटक भी दिखाई देते हैं तो वो हमें इसी बर्फ में भूखे प्यासे  बर्फ की ठण्ड से माँ की गोद में दुबके भूखे बच्चों तक ले जाती है, जिसका चित्र शायद कोई खींच न पाया हो | इसी संग्रह की कविता से पता चलता है कि जिन पहाड़ों की चोटियों पर लोग नंगे पाँव जाकर पूजा करते थे वहां आज लोग मूत कर आ जाते हैं| यह पहाड़ों के प्रति नई पीढी का एक पीडादायक पक्ष दिखाता है |  यह चित्र  मोहन साहिल की कविता से होकर ही देखा जा सकता है कि पहाड़ों पर जब बर्फ के तूफ़ान आते हैं तो देवता भी अपने आलीशान मंदिर के ऊपर वाली मंजिलों में जा बैठते हैं और तूफ़ान के थम जाने पर ही नीचे उतरते हैं, ऐसे में पहाड़ के लोगों को खुद कठिनाइयों से दो चार होना पड़ता है | पहाड़ का जीवन मोहन साहिल की कविता से बेहतर कोई नहीं जान सकता, यहाँ गृहणियां सोने चांदी के किसी गहने को नहीं, रस्सी को अपना जेवर समझकर कमर में पहनती हैं | पहाड़ पर रहने वाले अधिकतर बच्चे बिना जन्म पत्री के होते हैं जिनका भाग्य  मेहनत के पसीने में घुलता हुआ देखा आ सकता है | ठियोग में आलू की बिक्री के लिए बना आलू मैदान अब शाराबियों का अड्डा और कारों की पार्किंग बन गया है जहाँ लोग आलू का स्वाद और आलू  की किस्में भूल गए हैं, जिससे ठियोग के घरों में चूल्हा जलता है | नेपाल से आए मजदूर दिल बहादुर के ज़रिये कहा गया है कि एक मजदूर  नेपाल जाकर हर बार  इतना खून लेकर आ जाता है कि पहाड़ों के बागों में सेब का रंग लाल हो जाता है | सेब की कमाई से अमीर हुए लोगों के बच्चे अब सरकारी स्कूलों की टाट पर बैठ कर शिक्षा नहीं लेते बल्कि अंग्रेज़ी प्रवाह वाले स्कूलों में पढ़ते हैं और इन अंग्रेज़ी स्कूलों का रास्ता दिल बहादुर से हो कर ही निकलता है |  साहिल एक सम्वेदंशील कवि है, जिसे साफ़-साफ़ दिखाई देता है कि सेब के पौधे से पैसे कमाने वाला बागवान अमीर तो बेशक हो जाता है, लेकिन सेब के पौधे से रिश्ता नहीं जोड़ पाता | उधर दिल बहादुर के गाँव चले जाने पर सेब के पौधे मुरझाए रहते हैं, उसके लौट आने तक | मोहन साहिल की कविता में गमलों में खिले फूलों की खुशबू नहीं बल्कि जंगल के थपेड़े सहते जंगली फूल की खुशबू दिखाई देती है | मां और नगाल की कलमों के विरह में एक संवेदनशील कवि  पीड़ित दिखाई पड़ता है | मोहन साहिल की कविता के कैनवास में पहाड़ ही नहीं वो सब कुछ है, जो उन्होंने खुद जीया है,उन्होंने अपने भीतर की लाईब्रेरी से बाहर को महसूस किया है.. मसलन वो सिर्फ पहाड़ों तक सीमित नहीं रहते उनकी नज़रें जोश से भरे मीडिया के खरीदे जाने और सम्मोहित किये जाने पर भी पडती है, जहाँ मीडिया  की रगों में भ्रष्ट राजनीति एक ऐसा नशा भर दिया जाता है कि मीडिया भ्रष्टाचार की शरणस्थली बन जाता है | मोहन की कविता में सेब के बूढ़े पेड़ भी हैं और गाँव के बो बूढ़े भी जो इन्हीं बूढ़े पेड़ों से लिपट कर अपना दुःख बयान करते हैं|  कई गायब होते फल सव्ज़ियों के नाम चमड़े के जूते को कुर्म का जूता पुकारा जाना अतीत के बचे रहने की एक हल्की सी आशा है भड्डू, भटूरू,लाफी,कावणी आदि शब्द भी ताज़ा हो जाते हैं | जहां गोलियों से भुने जा रहे बच्चे, बमों से चीथड़ा हो रहे लोगों की खबरे हैं, वहीं मोहन साहिल की कविता में  चीटियों के पत्तों के बीच दबकर मर जाने का  शोक भी दर्ज है | बेकुसूर मंदिरों में काटे जाने वाले मेमनों की मिमियाहट बेशक देवता को नहीं सुनाई देती हो लेकिन कवि मोहन साहिल अक्सर इसे सुनते हैं| ‘देवदार रहेंगे मौन’ में पहाड़ की हरियाली को कैमरे में भर कर ले जाते पर्यटक भी हैं, तो तपस्या में लीन देवदार भी, जो सदियों से सबकुछ देखते आए हैं, सहते आए हैं | पहाडन के  हाथों की बिवाइयां दर्द से ज़्यादा कर्त्तव्य निभाने की मिठास महसूस करती हुई देखना, मोहन साहिल जैसे संवेदनशील कबिके ही बस की बात है | मोहन साहिल पर्यटकों को सलाह देते हुए भी दिखाई देते हैं की पहाड़ का निर्जीव चित्र खींचने भर से पहाड़ को देखना संभव नहीं कि भीतर एक अच्छा दिन  भी उबल रहा है | पहाड़ पर आपदा में नेताओं की हवाई यात्राओं के दौरान ज़मीन पर चीखते चिल्लाते लोगों को देखने वाला उड़नखटोला खरीदने की औकात किसी सकरार या नेता की नहीं, यह सिर्फ मोहन साहिल जैसे शिल्पी की ही जायदाद है | मोहन साहिल की कविता में बर्फ सूखे पहाड़ पर सपने बोने का काम करती हुई दिखाई देती है, पहाड़ पर फ़ैली धुंध में जब कुछ नहीं दिखाई देता तब भी मोहन की कविता पहाड़ के दर्द को साफ़ साफ़ देखती है | युद्ध को मनोरंजन बना देने की बात करने वाला कवि इस बात के लिए ज्यादा चिंतित है कि युद्ध में बच्चों के चीथड़े उड़ा देना भी अपराध नहीं | पगडण्डी और सडक को परिभाषित करती कविता कहती है की सड़क और पगडंडी में एक बड़ा अंतर ये है की सड़क में आदमी कहीं भी कुचला जा सकता है जबकि पगडंडी उंगली पकड़ घर तक ले जाती है | किसी उत्सव में नाचते हुए लोगों को देखकर कवि मोहन साहिल कहता है कि यह नाच देखकर ऐसा लगता है मानो सब समस्याएँ हल हो गईं हैं  | उनकी कविता में पाप नए ज़माने का फैशन है, जिसे लोग रात को सोते समय अपने बैडरूम में पसरे  बड़े चाव से टीवी पर देखते नज़र आते हैं | जवानी की नदी को अंधी दौड़ न लगाने की सलाह भी दी गयी है | मोहन की कविता चिड़ियों की उदासी में भी शरीक है|  उनकी कवितायेँ कहती हैं कि पढने के लिए किताबों के अलावा भी बहुत कुछ है, जैसे कतारबद्ध धारें, झुर्रियों वाले चेहरे, पत्थर जैसे हाथ, मिट्टी जैसे पाँव और घिसे हाथों की धुंधली लकीरे | उनकी कविता में ऐसे लोग भी हैं जो बचपन जवानी और जाड़े में अपने हिस्से की धूप अपने बच्चों के नाम कर अपना सारा जीवन कारखानों, खदानों, बंकरों और खेतों में गुज़ार देते हैं, ऐसे लोगों को सूरज भी नहीं पहचानता | मोहन साहिल विरले कवि इसलिए भी हैं कि वो महंगी गाड़ी में स्कूल जाते, हड्डियों को मज़बूत करने के लिए निठल्ले छत पर बैठे अमीरजादों के बच्चों को सभी सुविधाओं के लैस होते हुए भी उदास देखते हैं और तितलियों, मिट्टी पत्थर से खेलते गरीब बच्चों की अथाह खुशी से आनंदित होते हैं | उनके संग्रह से पहाड़ को साफ़ साफ़ देखा जा सकता है और पहाड़ से जीवन, उनकी कविता सोशल मीडिया पर लाखों फोलोवर वाले लोग नहीं खेतों में काम करते लोगों को दिखाती है, वो देवदारों की तपस्या में खलल डालने वाले नाचघरों को लेकर चिंतित है |

 बाकी फिर कभी.... 


आपका 


खामखा...

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