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25 February 2024

इस आदमी को बचाओ"

फेसबुक पर अशोक कुमार जी टिपण्णी 

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प्रिय कवि अजेय के इस संग्रह "इस आदमी को बचाओ" को आधार प्रकाशन से छपकर आये हुए लगभग एक वर्ष का समय होने को है।

कवि अजेय पर्वतीय संवेदनाओं के कवि हैं किंतु उनकी कविताओं में लाहुल का लोक ऐसे ही नहीं आता; वह आता है तीखे सवालों के साथ। उनकी कविताओं में पहाड़ सांस लेते हैं किंतु अंधुनिकता के अंधानुकरण के सामने तनकर खड़े होकर। नदिया बहती हैं; झरने गाते है किंतु अजेय की कविताएं उनके गान में बसी उन अव्यक्त पीड़ाओं को स्वर देती हैं जिन्हें आधुनिक होने के क्रम में हाशिए पर धकेल कर अनसुना करने की साजिशें रचने में लगे हैं पूंजी के पहरुए।

रोहतांग टनल बनते हुए कुछ चिंताएं यूं आती हैं:

"रूको दोस्त, सुनो -

यह जो छेद बनी है न

यहाँ तुम इस में यूँ दनदनाते हुए मत घुस जाना

कि हम जो वहाँ के पत्थर हैं

मिट्टी हैं, झरने हैं,

फूल पत्तियां और परिंदे हैं

और पेड़ हम अपनी जगह से उखड़ने न लग जाएं"

किंतु इस कवि को केवल आंचलिक अभव्यक्ति के साथ नत्थी कर देना इनके विस्तृत कविकर्म के साथ अन्याय होगा। इसलिए कवि अजेय को केवल पहाड़ी संवेदनाओं का कवि कहना उचित नहीं होगा। उनके कवित्व का फलक इतना बड़ा है कि वह समूचे विश्व की टीस को कुछ पंक्तियों में समेट लेने का हुनर रखते हैं:

"मेरा गाँव गज़ा पट्टी में सो रहा था

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वह आकाश की ओर देखती थी

गाँव की छत पर लेटी एक छोटी बच्ची

दो हरी पत्तियों और एक नन्हे से लाल गुलाब की उम्मीद में जब कि एक बड़ा सा नीला मिज़ाईल

जिस पर बड़ा सा यहूदी सितारा बना है

गाँव के ठीक ऊपर आ कर गिरा है

जहाँ 'इरिगेशन' वालों का टैंक है (यह मेरा ही गाँव है) धमक से उस की पीठ के नीचे काँपती है धरती

(यह मेरी ही पीठ है)"

ये कवितायें अपने अतीत की टोह लेती हैं, वर्तमान की पीड़ाओं को अभिव्यक्त करती हैं और भविष्य की चिंताओं के साथ आपके ज़ेहन में जरूरी सवालात छोड़ जाती हैं:

"वहाँ कम्पनी दफ्तर के बाहर

इकट्ठे हो रहे हैं गांव के लोग

क्या ये विरोध करेगें ?

क्या ये विरोध कर पाएगें?"

तथाकथित विकास के साथ जो छोटी–छोटी चीजें हमारी संस्कृति पर अनायास ही हावी हो रहीं हैं उन्हें सूक्ष्मता से दर्ज करना अजेय बहुत बेहतरी से जानते हैं:

"मुद्दे ही मुद्दे हैं

और एन जी ओ ही एन जी ओ हैं

कल्चर का उत्थान हो रहा है

माँसाहारी देवी देवता वैष्णव हो रहे हैं

बकरों के सिर नारियल हो रहे हैं 

गूर और कारदार

वेद पढ़ रहे हैं संस्कृत हो रहे हैं

बोली का लहजा सपाट हो रहा है"

वैश्वीकरण के बाद मुनाफाखोरों ने जिस तरह विकास का नकाब ओढ़कर संसाधनों की लूट करने की इतनी सारी योजनाएं बनाई हैं, उन्हें समझने के लिए अजेय जी की कवितायें आपके मन में कोई खिड़की भले न खोलें किन्तु इतना सुराख तो कर ही देतीं हैं कि रौशनी की कोई किरण चुपचाप प्रवेश कर सके।

बदलती परिस्थितियों में जहां बेरोजगारी बढ़ी है रोजगार के अवसर कम हुए हैं तो माइग्रेशन भी बढ़ा है। इस समस्या को अलग एंगल से देख रहे हैं अजेय।

"बड़े सस्ते में तीन बिहारी बच्चे ले के लौट रहा हूँ

बाल श्रमिक पुनर्वास केंद्र से

दो को ऑरचर्ड भेज रहा हूँ

एक को घरेलू काम सिखाऊँगा"

उनकी कविताएं छोटी पंक्तियों में बड़े और कठिन सवाल करती हैं। जैसे:

"पान सिगरेट के अड्डों पर पार्टी कार्यालय खुल गए हैं"

"वर्ण व्यवस्था और राष्ट्र में से पहले किस बचाना है समझ नहीं आ रहा है"

अजेय की कविताओं में यदि अंधाधुनिकता की चिंता है तो प्रेम से पगी संवेदनाएं भी हैं जो आपको आपके अतीत में ले जाकर भीतर से गुदगुदा देती हैं।

"सुन लड़की!

चौथी जमात में

मेरे बस्ते से पाँच खूबसूरत कंकरों के साथ

एक गुलाबी रिबन और दो भूरी आँखें गुम हो गईं थीं

कहीं गलती से तेरी जेब में तो नहीं आ गई"

इस संग्रह में कविताओं पर कविता है, कवियों पर कविता है, विमर्शों पर राजनीति पर और विमर्शों की राजनीति पर भी कविताएं हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें आदमी को बचाने की कविता है।

बेहतरीन संकलन के लिए आधार प्रकाशन और अजेय भाई को हार्दिक बधाई।

–अशोक कुमार

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