फेसबुक पर अशोक कुमार जी समीक्षा
"दुनिया के होने की आवाज़" आधार प्रकाशन से आया कवि प्रदीप सैनी का पहला काव्य संग्रह है। ऑनलाइन पोर्टल्स और पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर छपने वाले प्रदीप सैनी फिलहाल किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं।
जब मैं यह लिख रहा हूँ तो प्रदीप सैनी की कविताओं के विशुद्ध पाठक की तरह लिख रहा हूँ। प्रदीप सैनी मेरी नज़र में "आसान भाषा के मुश्किल कवि हैं।" कारण यह कि प्रदीप सैनी की कवितायें अपने अर्थ में खुलने के लिए कई-कई पुनर्पाठों की मांग करतीं हैं।
कविता देखिए:
"यात्राएँ प्यास से पैदा होती हैं
दरअस्ल वे पानी की तलाश हैं
हर प्यास का अपना पानी होता है
यात्रा पर निकलते हुए साथ लिया गया पानी
ज़्यादा देर काम नहीं आता।"
हम हमेशा सुनते आए हैं कि सीधे-सीधे सपाट तरीके से ही यदि बात कहनी है तो कविता से बेहतर गद्य में कही जा सकती है। कविता हमेशा सांकेतिक होती है, इस बात को प्रदीप सैनी न केवल बहुत बेहतर तरीके से समझते हैं बल्कि इसे आत्मसात भी करते हैं। वे कहते हैं:
"उस कवि को संदेह से देखना चाहिए
जिससे बहुत आवाज़ आती हो
और उन कविताओं को भी
जिनसे कोई आवाज़ न आती हो।"
ऑनलाइन प्लेटफार्मज़ और सोशल मीडिया पर कभी- कभार प्रदीप सैनी को पढ़ना मुझे हमेशा से ही उनकी कविताओं के प्रति आकर्षित करता रहा है। कभी- कभार इसलिए लिख रहा हूँ कि प्रदीप खुद कहते है कि वह बहुत कम कविता लिख पाते हैं। वह कहते हैं:
"कभी-कभी आत्मा में धंसी सिर्फ एक पंक्ति कहने को लिखता हूँ पूरी कविता"
शोशल मीडिया के दौर में फेसबुक पर एक-एक कवि के द्वारा रोज़ की कइयों कवितायें लिखकर पोस्ट किए जाने के दौर में प्रदीप सैनी के द्वारा कम लिखे जाने का कारण आप उनकी कविता पढ़कर ही जान सकते हैं। वे चार्ल्स बुकोस्कि की इस बात पर गहरे से आचरण करते हुए दिखाई देते हैं कि "अगर फूट के ना निकले/
बिना किसी वजह के/मत लिखो"।
प्रदीप सैनी की कवितायें समकालीन परिदृश्य को दर्ज करती हुई संवेदनहीन होते जा रहे समय की शिनाख्त करती हुई सवालों को एक फ़ांस की तरह वक्त के गले में छोड़ जाती हैं ताकि आने वाली पीढियां जब कविता की यह किताब खोलें तो इस वक्त को चिह्नने में कोई मुश्किल न हो।
कोरोनकाल के समय मजदूरों के पैदल पलायन पर लिखी कविता "उनके तलुओं में दुनिया का मानचित्र है" पूरी सभ्यता पर शालीनता से सवाल उठाती हुई निशब्द कर देती है। कविता देखिए:-
"हमारी सभ्यताओं का स्थापत्य उनके पसीने से जन्मा है
हमारी रोशनियों में चमकता लाल
उनके लहू का रंग है
कोई चौराहा उन्हें दिशाभ्रमित नहीं करता
वे जानते हैं कौन-सा है शहर से बाहर जाने का रास्ता
वे नहीं पूछेंगे हमसे
कौन-सी सड़क जाती है उनके गाँव
उन्हें याद हैं लौट जाने के सभी रास्ते
उनके तलुओं में दुनिया का मानचित्र है।"
कवि नागार्जुन को याद करते हुए प्रदीप लिखते हैं कि:
"सौ झूठ जीता हूँ
शुक्र है इतना कि कविता में सिर्फ़ सच लिखता हूँ
धूल भरे मौसमों में
मैली हुई आत्मा को धोने
कविता में लौटता हूँ बार-बार
हर बार गंदला करता हूँ उसका जल
बाबा, ये मैं कैसा कवि हूँ?"
उनकी कविताओं से गुजरने पे ऐसा लगता है कि ये ड्राफ्ट-दर-ड्राफ्ट सुधारी गई कवितायें नहीं बल्कि एक ही बार में फूट पड़ी वे संवेदनाएं हैं जिन्हें कागज़ पर यूँ का यूँ रख दिया गया है। इसलिए कहीं-कहीं शब्दों का आधिक्य तो नहीं किन्तु हल्की-फुल्की अड़चन दिख सकती है उच्चारण करते समय।
इन कविताओं से होते हुए हम एक ऐसे संसार में प्रवेश करते हैं जिसे केवल प्रदीप ही रच सकते हैं। जहां वह "आज़ाद औरतें" कविता लिखकर स्त्री मन को पढ़ते हुई छुपी हुई पितृसत्ता के ऊपर से एक झटके से चादर खींचकर एकदम उघाड़ देते हैं।
तिब्बती लड़की और बौद्ध भिक्षु से उनका संवाद कुछ गहरे प्रश्न छोड़ता है मस्तिष्क में। इन कविताओं के बहाने वह धर्म, धर्म की राजनीति, निर्वासन के दर्द और विद्रोह के प्रश्नों पर वो सवाल पूछते हैं जिन्हें कभी भुलाया नहीं जाना चाहिए था किंतु इतने सालों में शायद सभी भूलने लगे हैं धीरे-धीरे।
कविताओं से गुजरते आप कवि प्रदीप सैनी में, अपने समय को लेकर एक सजग व्यक्ति, वैश्विक विस्थापनों के प्रति संवेदनशील अध्येता और प्रेम में प्रेम से अधिक कुछ नहीं खोजने वाले एक अनकंडीशनल प्रेमी को पाएंगे।
"यह पिछली सदी के
उम्मीद भरे आखिरी दिनों की बात है
सदी बदलने से तो यूँ बदलने वाला कुछ नहीं था
पर तुम अचानक मिली जब मुझे
यकीन हो चला था
आने वाले समय में बेहतर होगी दुनिया
विलुप्त हुई नदियाँ
दन्तकथाओं से निकल धरती पर बहेंगी
बारूद सिर्फ दियासलाई बनाने के काम आएगा
और ऐसे ही न जाने कितने सपनों ने
आँखों में घोंसला बना लिया था
मैं साफ-साफ नहीं देख पाता था वक़्त।"
प्रदीप भाई आप यूँ ही रचते रहिए। फिलहाल आपको पहले संग्रह की बधाई और भविष्य के लिए हार्दिक शुभकामनाएं।
-अशोक कुमार
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