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22 September 2024

पुस्तक-समीक्षा लघुकथाओं में जीवन के विभिन्न रंग कोई अपना रतन चंद 'रत्नेश

September 22, 2024 0


कहानी और लघुकथा के साथ-साथ अन्य विधाओं में भी समान रूप से अपनी कलम चलाने वाले वरिष्ठ साहित्यकार रतन चंद 'रत्नेश' की हालिया प्रकाशित पुस्तक 'कोई अपना' में कुल साठ लघुकथाएं हैं। उल्लेखनीय है कि रत्नेश हिमाचल प्रदेश के लघुकथा साहित्य पर समय- समय पर आलेख लिखते रहे हैं और 'हिमाचल का लघुकथा संसार' नामक उनका लेख कई पुस्तकों, पत्रिकाओं और वेबसाइटों में शामिल है। उनके संपादन में हिमाचल के लेखकों की कुछ पुस्तकें पहले भी प्रकाशित हो चुकी हैं। लघुकथा क्षेत्र में एक पहचान बना चुके रतन चंद 'रत्नेश' की लघुकथाओं में जीवन के कई रूप देखने को मिलते हैं और इनकी सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि ये देखन में छोटे लगे, घाव करे गंभीर को पूर्णतः चरितार्थ करती हैं। राजनीतिक दाव-पेंच, सामाजिक विसंगतियां व विडंबनाएं, मनुष्य के दोहरे चरित्र और देश व समाज की चिंता इन लघुकथाओं में स्पष्टतः परिलक्षित होती हैं। 'हम हैं हिंदुस्तानी' एक ऐसी ही लघुकथा है जिसमें एक आटोचालक विदेशी सवारियों को ठगने की मंशा से मुंहमांगी स्कम की मांग करता है परंतु गंतव्य तक पहुंचते-पहुंचते उसकी अंतरात्मा जाग उठती है और वह उनसे वाजिब किराया यह सोचकर लेता है कि उसके इस कृत्य से विदेशों में अपने देश की छवि धूमिल होगी। 'दंगा' और 'व्यस्त' में यह खुलासा हुआ है कि जनमानस कभी अपने इलाके में दंगा नहीं चाहता। कुछ बाहरी ताकतें आकर इसे अंजाम देती हैं। इसी तरह 'आजादी' के वस्तुतः क्या मायने हैं, वह इस शीर्षक की लघुकथा से स्पष्ट होता है। अमीरी और गरीबी के अर्थशास्त्र पर लिखी गई लघुकथाएं बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती हैं। 'दहेज', 'शिकंजा'" और 'समस्या' समाज में विभिन्न रूपों में व्याप्त दहेज नामक कुप्रथा पर प्रहार करती हैं। लघुकथा के मूलस्वरूप लघुता का विशेष ख्याल रखाग या है और कुछ लघुकथाएं तो मात्र तीन-चार वाक्यों में अपनी छाप छोड़जा ती हैं। मिसाल के तौर पर 'रक्तदान' की ये पंक्तियां द्रष्टव्य हैं 'अपने नेता के प्रति आस्था व्यक्त करने के लिए पार्टी के लोगों ने उन्हें रक्त से तौला। शाम को सारा रक्त नाले में बहा दिया गया क्योंकि एकत्रित रक्त को उचित तापक्रम में न रखे जाने के कारण वह किसी काम का नहीं रहा। उधर पास के अस्पताल में दुर्घटना में पांच व्यक्तियों ने रक्त के अभाव में दम तोड़ दिया।' इस तरह यह एक छोटी-सी कथा अपने पीछे कई सवालिया निशान छोड़ जाती है। इसी तरह के कई व्यंग्य और कटाक्ष रत्नेश की लघुकथाओं में देखने को मिलते हैं। 'दो टके की नौकरी' में एक नेता अपने होनहार युवा बेटे को शिक्षित होकर उच्च पद पर आसीन होने के वजाय अपने नक्शेकदम पर चलने के लिए फटकारता है ताकि वह भी पर्याप्त धन कमा सके। बुरे लोगों के साथ-साथ देश व समाज में अच्छे लोग भी बहुतायत में हैं और उनमें स्वार्थ और परमार्थ समान रूप से व्याप्त हैं, इसका प्रतिनिधित्व भी कई लघुकथाएं करती हैं। भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी पर केंद्रित धर्मसंकट, गोल्ड मेडल, देश चलेगा, जरूरी कागज, सिफारिश, उपाय, लूट आदि प्रभावित करती हैं। 'सिफारिश' में ऐसे अधिकारी की मिसाल पेश की गई है जो अपने कार्यालय में सिफारशी लोगों के वजाय प्रतिभावानों को तवज्जह देते हैं ताकि सरकारी कार्य सुचारू रूप से चलता रहे। कुल मिलकार ये लघुकथाएं समाज को आईना दिखाने का काम करती हैं। पुस्तक अमेजन और फ्लिपकार्ट पर भी उपलब्ध है।


पुस्तक - कोई अपना (लघुकथा संग्रह), लेखक रतन चंद 'रत्नेश', प्रकाशक - शॉपिजन, अहमदाबाद (गुजरात), मूल्य - 268 रुपए। रौशन जसवाल 

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26 July 2024

कुल राजीव पंत जी के कविता संग्रह "पृथ्वी किताबें नहीं पढ़ती" का लोकार्पण..

July 26, 2024 0

 कुल राजीव पंत जी के कविता संग्रह "पृथ्वी किताबें नहीं पढ़ती" का लोकार्पण.. 

फेसबुक पर आत्‍मा रंजन 


शिमला के ऐतिहासिक गेयटी थिएटर का कॉन्फ्रेंस हॉल अग्रज कवि कुल राजीव पंत जी के सद्य प्रकाशित कविता संग्रह "पृथ्वी किताबें नहीं पढ़ती" के शानदार विमोचन समारोह का गवाह बना। कार्यक्रम की अध्यक्षता भारतीय प्रशासनिक सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी श्रीयुत श्रीनिवास जोशी जी ने की जबकि वरिष्ठ कवि आलोचक प्रो. कुमार कृष्ण जी कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में शरीक हुए। कविता संग्रह पर इन दोनों के अलावा ख्यात लेखक अनुवादक डॉ. मीनाक्षी एफ पॉल और डॉ. विद्यानिधि छाबड़ा के साथ मुझे भी पंत जी ने  बहुत स्नेह और इसरार के साथ इस किताब पर बोलने के लिए आमन्त्रित किया था। उनकी कविताओं पर सभी वक्ताओं ने बहुत गहनता से बात रखी। डॉ. सत्य नारायण स्नेही जी ने उम्दा संचालन किया।

किताब पढ़ना शुरू करता हूं तो अधिकांश कविताओं के पहले ड्राफ्ट अपनी मित्र मंडली की बैठकों में पंत जी के


मुख से उनके खास अंदाज़ में सुनने के अनेक दृश्य मूर्त होते चले जाते हैं। उनके दुर्लभ किस्म निश्छल कवि व्यक्तित्व से प्रभावित रहा हूं। लेकिन किताब पर बात करता हूं तो इस प्रभावान्विति को एक ओर रख देता हूं। क्योंकि गिरोह बंदियों की घोषणाओं फतवों के दो बड़े खतरे पाता रहा हूं। एक ऐसे फतवे देने वाले अपनी विश्वसनीयता को खो देते हैं दूसरे वे कविता की अपनी समझ को भी कटघरे में खड़ा कर देते हैं। तो इस प्रभावान्विति को एक ओर रख कर इन कविताओं की दुनिया से गुजरता हूं। तो पाता हूं कि ये कविताएं अपने कथ्य के अलावा अपनी कहन में काफी अलहदा काफी कुछ विलक्षण भी हैं। कवि का चीज़ों और स्थितियों को विस्मय, कौतूहल और अद्भुत सौंदर्य दृष्टि से निरखना मुझे आकर्षित करता रहा। गहरी सौंदर्ययुक्त दृष्टि से निरखती और उसे भाषा में रुपायित करती हैं ये कविताएं। अभिव्यक्त नहीं रुपायित करती हैं। चीज़ों की स्थिति, अवस्थिति या निर्मिति में निहित सौंदर्य को निरखता कवि। ये निरखना ये ग्राहायता विलक्षण है। हमारे समय में विधाएं परस्पर निकट आईं हैं। कुछ पहलू एक दूसरे से ग्रहण कर समृद्घ भी हुईं हैं। मसलन कहानी बिंब प्रतीक  कविता से ग्रहण कर अधिक सघन और कविता कथात्मकता, द्वंद्व, नाटकीयता जैसे तत्व कहानी से ग्रहण कर अधिक पठनीय और रोचक। इन कविताओं की कहन में भी गज़ब की कथात्मकता या किस्सागोई का आलंबन कविता को अधिक पठनीय और ग्राहय बनाता है। सीटियां जैसी कितनी ही कविताएं उदाहरण..।

एक अच्छे कवि के पास स्मृति, यथार्थ और स्वप्न का भरपूर वैभव उसके कविता संसार को समृद्ध करता है। यह वैभव कुल राजीव पंत के यहां भरपूर है। स्मृति का गहरा साक्ष्य मसलन – तख्तियां, ब्लैक बोर्ड, कोट, पुराना शहर जैसी कविताएं। यथार्थ यानी आज के प्रश्नों और चिंताओं से सीधी मुठभेड़ करती कविताएं। मसलन– स्मार्ट जंगल, पहाड़ पर पहाड़ के लिए, ऑक्सीजन बार, पृथ्वी की पीठ पर, मछलियां आदि कविताएं जल, जंगल, ज़मीन यानी पारिस्थितिकी की वैश्विक चिंताओं को गहनता से उठाती हैं। रफ्फू कविता में पहाड़ को रफ्फू करने के लिए लाल पंखों वाली चिड़िया की सुई में धागा डालने की समझ का रूपक जनपक्षधर वैचारिकी की ताकत और उम्मीद को बखूबी इंगित करता है। सौदागर कविता बाज़ारवाद के ख़तरों को इंगित करती है।– वह आएगा/लिखेगा किताबों में/ अपना नाम/ और उनमें रखे फूल/ ले जाएगा।

एक और बड़ा गुण इन कविताओं का है गज़ब का पर्सनोफिकेशन या मानवीकरण। पेड़, पहाड़, धूप, बर्फ़ हवा, जंगल, जीव–जन्तु, नदियां, समूची पृथ्वी...सब खूब बोलते बतियाते हुए। एक भरा पूरा जीवंत संसार। 

ये कविताएं चीज़ों और स्थितियों में मौजूद जीवंतता, जीवन तत्व की शिनाख्त करती हैं। जीवन तत्व को आरोपित नहीं करती। उसमें कवि सुलभ संवेदनशीलता चीज़ों में जीवन तत्व की तमाम संभावनाओं से संवाद करती है। मसलन ‘नदी के पत्थर‘। यहां कवि नदी से लाए गए पत्थर के भीतर पानी की बात करता है। यह असंभव दिखती हुई परिस्थितियों में भी संभावनाओं को देखने, यानी अप्रत्याशित आशा का प्रतीक है। आशा के प्रति ऐसी गहरी निष्ठा एक संवेदनशील कवि में ही हो सकती है। ये आशा वाद नहीं आशान्विति की कविता है। अर्जित करके भीतर स्थापित और फिर प्रकट होती आशा। यह सामान्य पत्थर नहीं है। नदी का पत्थर है। नदी के समीप्य और सानिध्य को आत्मसात किया हुआ पत्थर। नदी उसके भीतर समाई हुई है। अपने समूचे जल समेत..! 

प्रेम का प्राचुर्य है यहां। लेकिन मांसल या दैहिक प्रेम नहीं। प्रेम का भीगा उदात्त रूप। मिसाल के तौर पर ‘भीगा छाता‘ ज़रूर पढ़ी जानी चाहिए। प्रेम का यह उदात्त भीगा रूप पानी शीर्षक कविताओं में भी व्यंजित हैं। मित कथन, बिंबात्मकता और भाषा का बरताव विशेष रूप से आकर्षित करता है। अग्रज कवि कुल राजीव पंत जी को उनके पहले कविता संग्रह की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं। शानदार लोकार्पण कार्यक्रम के लिए कीकली ट्रस्ट को भी हार्दिक बधाई।

26 June 2024

पहाड़ों से जड़ों की तरह लिपटे कवि का संग्रह " देवदार रहंगे मौन" -- प्रकाश बादल

June 26, 2024 0

मेरे भीतर समाए कवि मोहन साहिल की कविता पर... खामखा की बात... मोहन साहिल..... जिसने मुझे खुद से दूर कर दिया....  


इन दिनों शिमला के रिज मैदान पर साहित्य का एक मेला लगा हुआ है | जहाँ पर ठियोग के एक महत्वपूर्ण कवि मोहन साहिल के दूसरे काव्य संग्रह ‘देवदार रहेंगे मौन’ का लोकार्पण हुआ, अपनी बात वहीं से शुरू करना चाहता हूँ | एक ठेठ पहाडी की पहचान लिए सादे कपड़ों में एक ढाबे पर चाय बनाने वाला कवि कितनी मीठी-मीठी कवितायेँ लिखता है यह उसकी कविताएँ पढ़कर अहसास हो जाता है| मैं मोहन साहिल की बात कर रहा हूँ| इतनी मिठास और इतनी अंतरंगता इसलिए आती है कि मोहन साहिल शिमला के ऊपरी पहाडी क्षेत्र में रहने वाले उन विरले व्यक्तियों में हैं, जो हर पल हर घड़ी पहाड़ों से लिपटा रहता है| उसका हर दिन पहाड़ों के बीचों बीच से होकर बहने वाले नदियों नालों और खड्डों से वार्तालाप करके शुरू होता है | उसका शिमला के ऊंचे टीले पर बसे ठियोग के शाली बाज़ार में चलने वाला लकी टी स्टाल और उसी टी स्टाल में बनने वाली देश की सबसे मीठी चाय.. सबसे मीठी इसीलिए है कि भेखलटी से ठियोग तक दस किलोमीटर का सफ़र करते समय, रात को अपने घर की छोटी खिड़की से झांकते समय, सुबह के पहले सूरज के उगते समय, बर्फ के गिरते और पिघलते समय पहाड़ से रोज़ मिठास बटोर  अपनी चाय में घोल देता है।|  मोहन की कविताएं अहसास कराती हैं कि पहाड़ों की ढलानदार घासनियों में चढ़ती उतरती पहाड़नों के पाँव की बिवाई में पगडंडियों की खुशबू और दोपहर को घास काटती पहाड़नों के लिए दोपहर का खाना लेकर आए पति जब उनके मेहंदी रंगे हाथों से काँटा और शरीर से कुम्बर निकालते हैं तो पहाड़नों के जीवन से मानो दुखों के कुम्बर निकाल रहे हों | पहाड़ को देखने के लिए मोहन साहिल की कविता सबसे बेहतर चश्मा है | मोहन साहिल की कविता पढ़ना ज़रूरी इसलिए है कि पहाड़ की चिंता और पहाड़ का दर्द इन्हें पढ़ कर साफ़ देखा जा सकता है | यदि पहाड़ों पर कचरा करने वाला सैलानी, पहाड़ों को बचाने वाला कोई इंजीनीयर, या फिर पहाड़ों के लिए चिंतित कोई नेता यदि मोहन साहिल की कविता पढ़ ले तो पहाड़ के बचे रहने के लिए एक मास्टर प्लान तैयार हो सकता है | मोहन साहिल एक बेहतरीन आर्किटेक्ट है जो पहाड़ पर तरक्की के भवन बनाने का विरोध नहीं करता,बल्कि  पहाड़ के दर्द से अनभिज्ञता की वकालत करता  है, जिसने पहाड़ को अपने भीतर समेट लिया है | मोहन साहिल की कविता महत्वपूर्ण क्यों हो जाती है ? उनकी कविता की ये पंक्तियाँ बयान करती हैं |

“ हम हैं जिन्होंने कविता के लिए

 नहीं चुने कठिन और अलंकारी शब्द

जीने के लिए चुने दुरूह और खाईदार रास्ते” 


मोहन साहिल का चश्मा जब तरह-तरह की कारों को पहाड़ों की घुमावदार सड़कों से होकर शहर की खुली सड़कों की ओर आते देखता है तो पूरे देश की तस्वीर सामने आने लगती है. यही एक सफल कवि का परिचय है | उनकी ‘कारें’ शीर्षक की कविता पढ़कर पूरे देश की व्यवस्था का भ्रमण किया जा सकता है |  उनकी कविता कहती है कि  कोई कार जन्म से घमंडी नहीं होती और शो रूम में भी शालीन नज़र आती हैं बल्कि कार में मंत्री के बैठते ही उसकी त्यौरियां चढ़ जाती हैं | इस कार को सड़कों पर पसरा दर्द, पैदल स्कूल जाते बच्चे, बसों की घंटों प्रतीक्षा करते ग्रामीण नज़र नहीं आते और यह कार सीधी एसकॉट के इशारे पर आगे निकल जाती है | एक अफसर की कार मंत्री की पिछलग्गू होते हुए भी ये खासियत रखती है कि हर साल मुरम्मत में ही लाखों खा जाती है| कारें कविता में डाक्टर से स्कूल मास्टर  तक की कारों को अगर आप मोहन साहिल की नज़रों से देखेंगे तो गंभीरता से लबालब  और आनद के ठहाकों से लोटपोट होकर निकलेंगे | पुलिस की कार सबको शक की निगाह से देखती नज़र आती है तो पाप की कमाई वाली कारों में एक्टर, ठेकेदार, गुंडे और बाहुबलि बैठे दिखाई देते हैं और ये कारें हमेशा नशे में धुत्त दिखाई देती हैं | मोहन साहिल की कविता बर्फ में सेल्फी खींचते पर्यटक भी दिखाई देते हैं तो वो हमें इसी बर्फ में भूखे प्यासे  बर्फ की ठण्ड से माँ की गोद में दुबके भूखे बच्चों तक ले जाती है, जिसका चित्र शायद कोई खींच न पाया हो | इसी संग्रह की कविता से पता चलता है कि जिन पहाड़ों की चोटियों पर लोग नंगे पाँव जाकर पूजा करते थे वहां आज लोग मूत कर आ जाते हैं| यह पहाड़ों के प्रति नई पीढी का एक पीडादायक पक्ष दिखाता है |  यह चित्र  मोहन साहिल की कविता से होकर ही देखा जा सकता है कि पहाड़ों पर जब बर्फ के तूफ़ान आते हैं तो देवता भी अपने आलीशान मंदिर के ऊपर वाली मंजिलों में जा बैठते हैं और तूफ़ान के थम जाने पर ही नीचे उतरते हैं, ऐसे में पहाड़ के लोगों को खुद कठिनाइयों से दो चार होना पड़ता है | पहाड़ का जीवन मोहन साहिल की कविता से बेहतर कोई नहीं जान सकता, यहाँ गृहणियां सोने चांदी के किसी गहने को नहीं, रस्सी को अपना जेवर समझकर कमर में पहनती हैं | पहाड़ पर रहने वाले अधिकतर बच्चे बिना जन्म पत्री के होते हैं जिनका भाग्य  मेहनत के पसीने में घुलता हुआ देखा आ सकता है | ठियोग में आलू की बिक्री के लिए बना आलू मैदान अब शाराबियों का अड्डा और कारों की पार्किंग बन गया है जहाँ लोग आलू का स्वाद और आलू  की किस्में भूल गए हैं, जिससे ठियोग के घरों में चूल्हा जलता है | नेपाल से आए मजदूर दिल बहादुर के ज़रिये कहा गया है कि एक मजदूर  नेपाल जाकर हर बार  इतना खून लेकर आ जाता है कि पहाड़ों के बागों में सेब का रंग लाल हो जाता है | सेब की कमाई से अमीर हुए लोगों के बच्चे अब सरकारी स्कूलों की टाट पर बैठ कर शिक्षा नहीं लेते बल्कि अंग्रेज़ी प्रवाह वाले स्कूलों में पढ़ते हैं और इन अंग्रेज़ी स्कूलों का रास्ता दिल बहादुर से हो कर ही निकलता है |  साहिल एक सम्वेदंशील कवि है, जिसे साफ़-साफ़ दिखाई देता है कि सेब के पौधे से पैसे कमाने वाला बागवान अमीर तो बेशक हो जाता है, लेकिन सेब के पौधे से रिश्ता नहीं जोड़ पाता | उधर दिल बहादुर के गाँव चले जाने पर सेब के पौधे मुरझाए रहते हैं, उसके लौट आने तक | मोहन साहिल की कविता में गमलों में खिले फूलों की खुशबू नहीं बल्कि जंगल के थपेड़े सहते जंगली फूल की खुशबू दिखाई देती है | मां और नगाल की कलमों के विरह में एक संवेदनशील कवि  पीड़ित दिखाई पड़ता है | मोहन साहिल की कविता के कैनवास में पहाड़ ही नहीं वो सब कुछ है, जो उन्होंने खुद जीया है,उन्होंने अपने भीतर की लाईब्रेरी से बाहर को महसूस किया है.. मसलन वो सिर्फ पहाड़ों तक सीमित नहीं रहते उनकी नज़रें जोश से भरे मीडिया के खरीदे जाने और सम्मोहित किये जाने पर भी पडती है, जहाँ मीडिया  की रगों में भ्रष्ट राजनीति एक ऐसा नशा भर दिया जाता है कि मीडिया भ्रष्टाचार की शरणस्थली बन जाता है | मोहन की कविता में सेब के बूढ़े पेड़ भी हैं और गाँव के बो बूढ़े भी जो इन्हीं बूढ़े पेड़ों से लिपट कर अपना दुःख बयान करते हैं|  कई गायब होते फल सव्ज़ियों के नाम चमड़े के जूते को कुर्म का जूता पुकारा जाना अतीत के बचे रहने की एक हल्की सी आशा है भड्डू, भटूरू,लाफी,कावणी आदि शब्द भी ताज़ा हो जाते हैं | जहां गोलियों से भुने जा रहे बच्चे, बमों से चीथड़ा हो रहे लोगों की खबरे हैं, वहीं मोहन साहिल की कविता में  चीटियों के पत्तों के बीच दबकर मर जाने का  शोक भी दर्ज है | बेकुसूर मंदिरों में काटे जाने वाले मेमनों की मिमियाहट बेशक देवता को नहीं सुनाई देती हो लेकिन कवि मोहन साहिल अक्सर इसे सुनते हैं| ‘देवदार रहेंगे मौन’ में पहाड़ की हरियाली को कैमरे में भर कर ले जाते पर्यटक भी हैं, तो तपस्या में लीन देवदार भी, जो सदियों से सबकुछ देखते आए हैं, सहते आए हैं | पहाडन के  हाथों की बिवाइयां दर्द से ज़्यादा कर्त्तव्य निभाने की मिठास महसूस करती हुई देखना, मोहन साहिल जैसे संवेदनशील कबिके ही बस की बात है | मोहन साहिल पर्यटकों को सलाह देते हुए भी दिखाई देते हैं की पहाड़ का निर्जीव चित्र खींचने भर से पहाड़ को देखना संभव नहीं कि भीतर एक अच्छा दिन  भी उबल रहा है | पहाड़ पर आपदा में नेताओं की हवाई यात्राओं के दौरान ज़मीन पर चीखते चिल्लाते लोगों को देखने वाला उड़नखटोला खरीदने की औकात किसी सकरार या नेता की नहीं, यह सिर्फ मोहन साहिल जैसे शिल्पी की ही जायदाद है | मोहन साहिल की कविता में बर्फ सूखे पहाड़ पर सपने बोने का काम करती हुई दिखाई देती है, पहाड़ पर फ़ैली धुंध में जब कुछ नहीं दिखाई देता तब भी मोहन की कविता पहाड़ के दर्द को साफ़ साफ़ देखती है | युद्ध को मनोरंजन बना देने की बात करने वाला कवि इस बात के लिए ज्यादा चिंतित है कि युद्ध में बच्चों के चीथड़े उड़ा देना भी अपराध नहीं | पगडण्डी और सडक को परिभाषित करती कविता कहती है की सड़क और पगडंडी में एक बड़ा अंतर ये है की सड़क में आदमी कहीं भी कुचला जा सकता है जबकि पगडंडी उंगली पकड़ घर तक ले जाती है | किसी उत्सव में नाचते हुए लोगों को देखकर कवि मोहन साहिल कहता है कि यह नाच देखकर ऐसा लगता है मानो सब समस्याएँ हल हो गईं हैं  | उनकी कविता में पाप नए ज़माने का फैशन है, जिसे लोग रात को सोते समय अपने बैडरूम में पसरे  बड़े चाव से टीवी पर देखते नज़र आते हैं | जवानी की नदी को अंधी दौड़ न लगाने की सलाह भी दी गयी है | मोहन की कविता चिड़ियों की उदासी में भी शरीक है|  उनकी कवितायेँ कहती हैं कि पढने के लिए किताबों के अलावा भी बहुत कुछ है, जैसे कतारबद्ध धारें, झुर्रियों वाले चेहरे, पत्थर जैसे हाथ, मिट्टी जैसे पाँव और घिसे हाथों की धुंधली लकीरे | उनकी कविता में ऐसे लोग भी हैं जो बचपन जवानी और जाड़े में अपने हिस्से की धूप अपने बच्चों के नाम कर अपना सारा जीवन कारखानों, खदानों, बंकरों और खेतों में गुज़ार देते हैं, ऐसे लोगों को सूरज भी नहीं पहचानता | मोहन साहिल विरले कवि इसलिए भी हैं कि वो महंगी गाड़ी में स्कूल जाते, हड्डियों को मज़बूत करने के लिए निठल्ले छत पर बैठे अमीरजादों के बच्चों को सभी सुविधाओं के लैस होते हुए भी उदास देखते हैं और तितलियों, मिट्टी पत्थर से खेलते गरीब बच्चों की अथाह खुशी से आनंदित होते हैं | उनके संग्रह से पहाड़ को साफ़ साफ़ देखा जा सकता है और पहाड़ से जीवन, उनकी कविता सोशल मीडिया पर लाखों फोलोवर वाले लोग नहीं खेतों में काम करते लोगों को दिखाती है, वो देवदारों की तपस्या में खलल डालने वाले नाचघरों को लेकर चिंतित है |

 बाकी फिर कभी.... 


आपका 


खामखा...

10 March 2024

संवेदना, टीस और हौंसले का संगम...... अनकहे जज़्बात

March 10, 2024 0

 काव्य संग्रह   अनकहे जज़्बात - राजीव डोगरा  !   डॉनीरज पखरोलवी ! 

अनकहे जज़्बातराजीव डोगरा जी का प्रथम काव्य संग्रह है l इसमें कुल पचास कविताएं शामिल हैं l ये सभी कविताएँ विभिन्न विषयों के प्रति विभिन्न मनोभावों को अपने में समाहित किए हुए हैं । कवि के जीवन का एक-एक अनुभूत क्षण इन कविताओं में झलकता है l कविताओं की भाषा कलिष्ट  बोझिल नहीं, बल्कि सरल है, इतनी सरल है कि आम से लेकर खास तक किसी भी स्तर के पाठक को पढ़ने में कोई मुश्किल नहीं आएगी । कवि ने सीधे- सीधे आम बोलचाल की ज़ुबान में अपनी बात कह देने में महारत हासिल है l बिना किसी अतिरिक्त प्रयास या लाग लपेट के अपनी बात कह कर आगे निकल जाने का चमत्कार अनकहे जज़्बातमें यत्र तत्र सर्वत्र दिखाई देता है । यह काव्य संग्रह महक रहा है । पृष्ठ-पृष्ठ पर एक अनोखी सुगंध विद्यमान नज़र आती है l सुंदर शब्द पुष्पों से गुंफित हार है ...... अनकहे जज़्बात l

      इस काव्य संग्रह की शुरुआत श्री सिद्धिविनायक स्तुति से हुई है l “हे ! वाग्वादिनी माँ  कविता में माँ सरस्वती से ज्ञान और ध्यान की प्राप्ति की प्रार्थना की गई है । अविद्या से छूटकारा पाने और ज्ञान की प्राप्ति के लिए कवि आह्वान करता है कि -  

आकर हमें विद्या का वरदान दे

हे! वाग्वादिनी माँ

हे! वाग्वादिनी माँ

तू हमें ज्ञान दे

तू हमें ध्यान दे …”

 बेड़ी का दर्दनारी के अंतर्मन की पीड़ा व उसकी भावनात्मक स्थिति को व्यक्त करती एक बेहतरीन कविता है । अपनी इस कविता के माध्यम से कवि  कहता है कि किस्मत में जो बंधन हैं, वे हमें दूरी पार नहीं करने देते। जीवन की परिस्थितियाँ और किस्मत की बंदिशें हमें बांधित करती हैं । बेड़ी का दर्दकविता इसी चिंता को कुछ यूँ जाहिर कर रही है:-

कहीं  दूर गगन में निकल जाऊं

पर पड़ी पाँव में जो बरसों से

किस्मत की बेड़ी,

कैसे तोड़ इसे उड़ जाऊं  l”

इस काव्य संग्रह की दोस्तीकविता सन्देश देती है कि अच्छे दोस्त हमेशा दिल से और सच्चाई से दोस्ती निभाते रहते हैं । सच्चे दोस्तों को अपनी दोस्ती को जीवंत और मजबूत रखने के लिए हमेशा दिल से मिलना चाहिए और एक-दूसरे के साथ मस्ती करते रहना चाहिए:-

दोस्त  अपनी दोस्ती

दिल से  निभाते  रहना

कर-कर बातें मुझे

हमेशा हँसाते रहना..

कवि बचपन की नादानियों और मासूमियत को याद करता है और उसकी विहान खो जाने पर दुःखी होता है l वह उन सुंदर और मासूम पलों को याद कर रहा है, जो अब वहाँ नहीं हैं ,जहाँ बचपन गुजरा था:-

वो बचपन वो नादानियाँ

अब कहाँ  चली गई .. ?

घूमता फिरता  था जहाँ

वो हसीन वादियां भी

अब कहाँ  चली गई .. ?

मानवीय रिश्तों में विश्वास और समर्थन का होना बहुत महत्वपूर्ण होता है। इन रिश्तों में हम अपनी भावनाओं को साझा करते हैं, एक दूसरे के साथ जुड़े रहते हैं और समर्थन प्राप्त करते हैं। लेकिन दुःख  की बात यह है कि कई बार हमारे अपनों से धोखा मिल सकता है । "तेरा सहारा" कविता में अंतर्मन की इसी पीड़ा में कवि तन्हा चीखते हुए कह रहा है -

जब शहद से मीठे लोगों ने

बन विषधर मुझको डंसा

तो अपनों ने भी मुझसे

किनारा कर लिया….”

गुलाम आज़ादीकविता के माध्यम से  कवि हम भारतीयों की विघटनकारी मानसिकता पर  चोट करते हुए कहता है कि हम आज़ाद तो हो गए लेकिन अभी भी धर्म-जाति के मोहपाश से मुक्त नहीं हो पाए हैं l ऐसी आज़ादी किसी काम की नहीं । इस काव्य-संग्रह की चलना ही होगाकविता अंधेरे कोनों पर रोशनी डालती है । तृषाकविता में कवि गहरा संदेश देते हुए कहता है कि हमें अपनी भावनाओं और इच्छाओं को छिपाने की बजाय उन्हें समझने और साझा करने की जरूरत है । कवि ने अस्मिता की  तलाशकविता को संसार और समाज के प्रति अपने मन के गहरे प्रेम से रचा है । ज़िन्दगी  तेरा कोई पता नहींकविता जीवन की अनिश्चितता को व्यक्त करती है । मैं मुक्त हूँकविता हृदय की भावनाओं का सुंदर शब्दों में आकार लिए हुए है । कुछ अनकहाकविता में  एक अनकही खामोशी का जिक्र है,जो अंतर्मन में अपने अस्तित्व और पहचान की तलाश में बहुत चीखती है । अंतर्मन की पीड़ाकविता से ये ज़ाहिर हो जाता है की लफ़्ज़ों की जादूगिरी राजीव जी को आती है । नासूरकविता हृदय को बड़ी ही गहराई तक स्पर्श करती है । जीवन चक्रकविता में संवेदनात्मक धरातल पर जीवन का एक विस्तृत फ़लक उजागर होता है । नवीन जीवनकविता एक नई शुरुआत, एक नया जीवन और मानवता की सच्ची पहचान की खोज को उजागर करती है l "पिंजरे में बंद मानव" कविता अत्यंत गहरी और संवेदनशील भावनाओं को व्यक्त करती है। इस काव्य संग्रह की अन्य कविताओं जैसे कोई शिकवा नहीं, बेदर्द दुनिया, एक दर्द ,आज का आशिक, तेरा इंतजार, नई मोहब्बत, मेरा सफर, बदलता इश्क़ आदि सभी कविताओं में राजीव जी ने अपने जीवन के अनुभवों को उकेर दिया है l जीवन की सच्चाई और सरलता को उनकी कविताओं में महसूस किया जा सकता है ।अधिकतर कविताएं ऐसी हैं कि यदि उन्हें बार-बार पढ़ा जाए तो उनके नए-नए अर्थ खुलते जाते हैं ।

यह काव्य-संग्रह राजीव जी का पहला प्रयास है l इस संग्रह में बहुत सी रचनाएं उम्दा हुई हैं, जिनका कोई जवाब नहीं है । फिर भी, राजीव जी को साहित्यिक जगत में अगर एक विशेष स्थान हासिल करना है तो उन्हें अपनी ये साधना मुसलसल जारी रखनी होगी क्योंकि साहित्यिक जगत को राजीव जी से बहुत अपेक्षाएं हैं l कवि को भी इस बात का आभास है l तभी तो कवि कह रहा है :- 

आसमाँ को अपने हौसलों से,

थरथराना अभी बाकी है…..!

राजीव जी का सृजन-कर्म अनवरत आयुष्मती उपलब्धियों का वरण करे l मेरी हार्दिक शुभकामनाएं !                                   

डॉ. नीरज पखरोलवी

गॉंव:- पखरोल, डाकघर  सेरा, तहसील:- नादौन,

जिला  हमीरपुर  (हि. प्र.)-177038  

06 March 2024

पुस्तक 'लाडो' की समीक्षा

March 06, 2024 0
साझा काव्य संग्रह 'लाडो' की समीक्षा ।  समीक्षक प्रो रणजोध  सिंह। संपादन रौशन जसवाल।                 लाडो हमारे घरों की आन-बान और शान 


लाडो शब्द का ध्यान करने मात्र से ही हृदय रोमांचित हो जाता है| आंखों के सामने दौड़ने लगती हैं एक छोटी सी परी, अठखेलियाँ, शरारत या मान-मनुहार करती हुई, जिसकी हर क्रिया से केवल प्रेम झलकता है और जिसे इस जगत के लोग बेटी, परी, या लाडो कहकर पुकारते हैं| 
विवेच्य काव्य संग्रह लाडो विश्व की आधी जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करने वाली बेटी को ही समर्पित है| साहित्य जगत के उज्ज्वल नक्षत्र श्री रौशन जसवाल 'विक्षिप्त' जो हिमाचल प्रदेश उच्चतर शिक्षा विभाग से संयुक्त निदेशक के पद से सेवानिवृत हुए है, ने इस भाव युक्त कविता संग्रह लाडो का संपादन किया है| इससे पहले भी वे, 'अम्मा जो कहती थी,' 'पगडंडियां,' 'मां जो कहती थी' और 'प्रेम पथ के पथिक' नाम की साझा संग्रहों का संपादन कर चुके है| 160 पृष्ठों के कलेवर में देश भर के 31 कवियों की लगभग 90 कविताओं को इसमें शामिल किया गया है|
इस काव्य संग्रह की बड़ी विशेषता यह है कि साहित्य जगत के नामी-गिरामी साहित्यकारों साथ-साथ उभरते हुए लेखकों को भी स्थान दिया गया है| पुस्तक का आरंभ हिमाचल प्रदेश के वरिष्ठ व प्रसिद्ध साहित्यकारों डॉ. प्रेमलाल गौतम 'शिक्षार्थी,' डॉ. शंकर वासिष्ठ और श्री हरि सिंह तातेर की सारगर्भित टिप्पणियों से हुआ है, जिनमें वैदिक काल से लेकर आज तक नारी जीवन का समस्त इतिहास व गरिमा समाहित है| इस काव्य संग्रह को पढ़कर कहना पड़ेगा कि बेटियां हमारे घरों की आन-बान और शान हैं| बेटियां हैं तो घर, परिवार और समाज है अन्यथा सब कुछ अधुरा है| आज की बेटी ने अपने को हर क्षेत्र में साबित किया है| अनिल शर्मा नील ने इसी बात का अनुमोदन करते हुए लिखा है:
गृहस्थी हो या फिर हो कार्यालय/ अपनी कुशलता से चमकया नाम है|/ नभ जल थल में लोहा मनवाया है/ लहरा के तिरंगा देश का बढ़ाया मान है|
बेटी तो एक ऐसा पारस है जो लोहे को भी चंदन बना देती है वह जिस जगह पर भी अपने कदम रखती है, वह जगह स्वर्ग सी सुंदर बन जाती है| वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. अशोक विश्वामित्र की इन पंक्तियां पर गोर फरमाएं: 
प्रीति, आस्तिकता सुरुचि, शुचिता, सुमति अमृत कनी,/ भाव निर्झरणी बही और एक हो बेटी बनी|/ पुष्प सी सुरभित, सुकोमल,/ स्नेह स्निग्धा त्याग और तप की धनी,/ भावना के गुच्छ ये सब एक हो बेटी बनी|
युवा कवि अतुल कुमार लिखते हैं: 
मुझे घमंड है/ मैंने एक बेटी को है पाया,/ पिता होने का सम्मान/ उसी ने मुझे दिलाया|
वरिष्ठ साहित्यकार एवं संस्कृत भाषा के विशारद डॉ. प्रेमलाल गौतम 'शिक्षार्थी' ने नारी को नवदुर्गा का रूप मानते हुए दो कुलों का प्रकाश लिखा है:
नवदुर्गा का प्रतीक आद्या/ दो कुलों का दीप आद्या| 
अपनी एक अन्य कविता 'सुकन्या' में उन्होंने नारी को सृष्टि की परम शक्ति बताते हुए देवी के नौ रूपों का बड़ा ही सुरुचि पूर्ण वर्णन किया है: 
'शैलपुत्री' आरोग्य दायिनी 'ब्रह्मचारिणी' सौभाग्य प्रदा, 
'चन्द्रघंटा' साहस सौम्यदा, मध्य कुष्मांडा करे धी विकास सदा| 
'स्कंदमाता' सुखशांति, कष्ट निवारणी 'कात्यानी' 
विकराल काल हरे 'कालरात्रि' 'महागौरी' पुण्यदायिनी| 
'सिद्धिदात्री' यह नवमी शक्ति, करती पूर्ण हर मनोकामना
नवदुर्गा आशीष साथ हो, नहीं होता भवरोग सामना|
वरिष्ठ साहित्यकार और यायावर श्री रत्नचंद निर्झर को लगता है कि बेटियां कभी मायके से जुदा नहीं होती: इसीलिए वह कहते हैं: 
मां ने अभी सहेज कर रखें/ बचपन के परिधान, गुड्डे गुडियां/ और ढेर सारे खिलौने/ बेटी की अनुपस्थिति में/ बतियाएगी उनके संग/ और करेगी उनसे/ बेटी जानकर एकालाप
वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. शंकर लाल वासिष्ठ ने उसे घर को सौभाग्यशाली कहा है जहां पर बेटी जन्म लेती है| बेटी सिर्फ पति के घर की शोभा नहीं अपितु वह अपना मायका भी अच्छे से संभालती है| उनकी एक कविता का अंश:
मायके की गरिमा तू/ ससुराल की अस्मिता है बेटी/ विचरती दो परिवारों में/ मान मर्यादा बनती है बेटी/ संभालती विचारती मुदितमना/ कर्तव्य निभाती है बेटी/ पावन, निष्कपट स्वाभिमान दो कुलों का है बेटी|
ये हमारे समाज की कितनी बड़ी बिडम्बना है कि एक तरफ तो हम बेटियों को देवी का दर्जा देते हैं मगर फिर भी हम उन्हें वो स्थान और वो सम्मान नहीं दे पायें हैं जिसकी वे हकदार हैं| लगभग प्रत्येक कवि ने बेटियों की वर्तमान स्तिथि पर चिंता व्यक्त की है| कन्या भ्रूण हत्या पर अपने भाव प्रकट करते हुए डॉ. कौशल्या ठाकुर कहती है:
चलाओ न निहत्थी पर हथियार/ लेने दो इसको गर्भनाल से पोषाहार| 
होने दो अंग प्रत्यंग विकसित,/ निद्रित कली को खोलने दो लोचन द्वार|
वरिष्ठ लेखक श्री हितेंद्र शर्मा ने अपने भाव कुछ इस तरह व्यक्त किये हैं: 
दहलीज लांघने से डरती है बेटियां/ पिया की प्रिया सखी बनती है बेटियां 
मां-बाप की तो सांसों की जान है बेटियां/ बाबुल की ऊंची पगड़ी की शान बेटियां 
खाली कानून बनाने से या बेटी के पक्ष में नारे लगाने से बात नहीं बनने वाली| निताली चित्रवंशी की कलम देखिए:
कानून बनने बदलने से/ सरकारों के आने जाने से/ उनकी बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियानों से कहाँ बच पा रही हैं बेटियां|   
यूं तो नारी के तीन रूपों की कल्पना की गई है लक्ष्मी, दुर्गा (शक्ति) और सरस्वती| मगर हमने नारी को सिर्फ पहले यानि लक्ष्मी रूप तक ही सीमित कर दिया है| चर्चित साहित्यकार डॉ. नरेंद्र शर्मा की पंक्तियां इसी बात का खुलासा कर रही हैं:
पुरुष प्रधान पितृसत्तात्मक समाज/ आदि शक्ति के/ तीन रूपों/आयामों/ लक्ष्मी, शक्ति और सरस्वती में से/ बेटियों को केवल/ घर की लक्ष्मी तक ही/ सीमित रखता है|
भारतीय समाज बेटियों को लेकर सदैव दोहरी मानसिकता रखता है| इस मर्म को समझा है युवा कवि राजीव डोगरा ने: 
हां मैं एक लड़की हूँ/ हां मैं वो ही लड़की हूँ/ जो अपनी हो तो/ चार दीवारी में कैद रखते हो|/ किसी और की हो तो/ चार दीवारी में भी/ नजरे गड़ाए रखते हो|
भारत, जिसे विश्वगुरु की संज्ञा दी जाती है, में आज कितना बुरा समय आ गया है कि आज की तिथि में बेटी का पिता होना एक खुशी की बात नहीं अपितु चिंता का विषय बन गया है| युवा कलमकार रविंद्र दत्त जोशी लिखते हैं:
हर पल चिंता की चिता में जीता हूँ
जी हाँ मैं भी एक बेटी का पिता हूँ| 
वरिष्ठ साहित्यकार एवं सेवा निवृत पुलिस अधीक्षक श्री सतीश रत्न अपनी चिंता व्यक्त करते हुये सवाल उठाते है कि बेटी को देवी का दर्जा देने वाले लोग असल जीवन में बिलकुल इसके विपरीत है| क्या हम उन्हें इतनी भी स्वंत्रता नहीं दे सकते कि वे निर्भय होकर घर से बाहर जा सके? उनकी एक कविता की बानगी देखिए:
बेटी, बाहर आदमी होंगे/ ज़रा संभल के जाना/ और हां/ दिन छिपने से पहले/ घर आ जाना!!
वही नीना शर्मा बेटियों का संरक्षण व संबल बनाने की बात करती हैं: 
बेटियां देश का भविष्य होती है अच्छे समाज का भार ढोती है/ परी बनाकर उन्हें नाजुक न बनाओ|
उधर देव दत्त शर्मा ने बेटियों को स्पष्ट हिदायत दी है कि अब रावण का अंत करने के लिए राम का इंतज़ार नहीं करना चाहिए| समय आ गया है जब उन्हें स्वयंसिद्धा होकर रावण का सामना करना होगा:
अब खुद ही सुताओं को प्रचंड धनुष उठाना होगा/ छोड़ लाज शर्म खुद को ही अब राम बनाना होगा|/ पहले भी लड़ी थी सती बनाकर यमराज से तू/ फिर तुझे ही अब धनुष संधान से रावण मिटाना होगा||
साहित्यकार श्री उदय वीर भरद्वाज पूरी पुस्तक में अकेले एक ऐसे कवि है जिन्होंने बेटी के सुखी वैवाहिक जीवन हेतु उसे नसीहत की कड़वी मगर सच्ची घुटी पिलाई है| उनकी निम्न पंक्तियों का विचारणीय हैं : काश/ लालच छोड़ सीखती संस्कार/ करती न अंतर/ मां-बाप सास ससुर में/ एक सा मानती/ मायका और ससुराल/ बेटी बेटी होती/ वृद्ध आश्रम न होते/ बेटी आदर्श
बहू होती/ बूढ़े मां-बाप/ स्वर्ग सुख भोगते/ बना रहता भाई बहनों में प्यार/ स्वर्ग से सुंदर होता संसार|
कुल मिलाकर इस कविता संग्रह में बेटी से संबंधित कोई ऐसा पहलू नहीं है जिस पर चर्चा नहीं की गई हो| संग्रह की अंतिम कविता 'बेटियां कभी उदास नहीं होती' इस संग्रह के संपादक श्री रौशन जसवाल 'विक्षिप्त' द्वारा लिखी गई है जिससे उन्होंने स्वयं भी यह स्वीकार किया है कि आज की परिस्थितियों में बेटियां सुरक्षित नहीं है| लेकिन वे आशावान है कि एक दिन ऐसा अवश्य आएगा जब यह संसार बेटियों की शक्ति को पहचानेगा और वे स्वतंत्रता व सम्मानपूर्वक अपना जीवन-यापन कर सकेगीं| 
एक ही विषय पर भिन्न कवियों पढ़ना न केवल मन को रोमांचित करता है अपितु उस विषय से संबंधित हर पहलू का सूक्ष्म विश्लेषण भी सहज ही हो जाता है| इस दृष्टि से लाडो एक सफल पुस्तक है और संग्रह करने योग्य हैं| मुझे पूर्ण विश्वास है कि कोई भी व्यक्ति जो इस संग्रह को दिल से पड़ेगा, बेटियों के प्रति निश्चित ही उसकी सोच बदलेगी और वह बेटी के सपनों में कभी बाधक नहीं बनेगा| मुख्य संपादक श्री जसवाल व उनकी संपादकीय टीम और संकलित लेखकों को बहुत-बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं| 

पुस्तक का नाम – लाडो कविताएं (साझा कविता-संग्रह) 
सम्पादक और प्रकाशक – रौशन जसवाल 'विक्षिप्त'
 300/- 
समीक्षक - रणजोध सिंह